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में पृ० ० ६५
मूलसूत्रानुक्रम के अन्त "गणनेयं सूत्राणा - मनुष्टुभामर्धसप्तमशतीह । त्रीणि सहस्राणि शते द्व े षट्त्रिंशच्च योगानाम् ॥ संज्ञानियम- निषेधाधिकार- नित्यापवाद-विधि- परिभाषाः । अतिदेश-विकल्पाविति गतयः शब्दानुशासने सूत्राणाम् ।। " शाकटायनीयसूत्रपाठस्समाप्त ।"
शाकटायन-व्याकरण तथा जैनेन्द्र-व्याकरण के मार्ग दर्शक सैद्धान्तिक आधार व्याकरण ग्रन्थ - शाकटायन व्याकरण ने अपने विषय का विन्यास करने में कलाप व्याकरण का मार्ग ग्रहण किया है, तब जैनेन्द्र के लेखक ने अपने व्याकरण का मार्ग दर्शक पाणिनीय अष्टाध्यायी को रखा है, भेद मात्र इतना ही है कि पाणिनीय व्याकरण का विषय आठ अध्यायों में विभक्त है, तब जैनेन्द्र ने व्याकरण का सम्पूर्ण विषय पांच अध्यायों में समाविष्ट किया है, शाकटायन चार अध्यायों में उसका मार्ग दर्शक है"कलाप व्याकरण, " यद्यपि भागों को अध्यायों के नाम से नहीं बताता, फिर भी उसके तमाम विषय चार भागों में पूरे होते हैं, जिसके अनुकरण में शाकटायनाचार्य ने अपना व्याकरण चार अध्यायों में विभक्त किया है ।
पूरा होता है, अपने ग्रन्थ के
शाकटायन ने अनेक मौलिक व्याकरण ग्रन्थों का आधार तो लिया ही है, कहीं कहीं तो पाणिनीय के सूत्रों को ज्यों का त्यों अपनाया है, फिर भी इन्होंने अपना व्याकरण बताने के भाव से सूत्रों में स्पष्टता लाने की तरफ विशेष ध्यान रखा है, इसके विपरीत जैनेन्द्रकार ने पाणिनीय के साथ मेल जोल रखने का खास ध्यान रखा है । अनेकों पाणिनीय सूत्र अपने व्याकरण में ज्यों के त्यों रख दिए हैं, कहीं कहीं सूत्रों में परिवर्तन भी किया है, लेकिन बहुत ही कम प्रमाण में, कारकादि अनेक विषय पाणिनीय के ही क्रम से रखे है, उदाहरणार्थ कारक- प्रकरण को लीजिये, अधिकरण से प्रारम्भ कर कर्ता तक के क्रम से पाणिनि ने कारक - प्रकरण
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