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२३१ इन्द्रचन्द्रादिमिः शाब्दैयदुक्त शब्दलक्षणम् । तदिहास्ति समस्तं च, यन्न हास्ति न तत् क्वचित् ॥१०॥ गण-धातुपाठयोगण-धातूं लिङ्गानुशासने लिङ्गगतम् । उणादिकमुणादौ, शेष निःशेषमत्र वृ(कृ)तौ विद्यात् ॥११॥ बालाऽबलाजनोऽध्यस्या, वृत्तेरभ्यासवृत्तितः । समस्तं वाङ मयं वेत्ति, वर्षेणैकेन निश्चयात् ॥१२॥ तत्र मूल कर्ता का मंगलश्लोक"नमः श्री बद्ध मानाय, प्रबुद्धाशेषवस्तवे । येन ब्दार्थसम्बन्धाः सार्वेण सुनिरूपिताः ॥१॥ धर्मार्थकाममोक्षेषु, तत्वार्थावगतिर्यतः ।
शब्दार्थज्ञानपूर्वेतिः, वेद्य व्याकरणं बुधैः ॥२॥ पृ० २६ -“दश ऋणानि यस्याः सा दशार्णा नदी, दशार्णो जन
पदः ।"
पृ० ४७-“ततः प्रागार्यवज्रस्य' १।२।१३। एवं दूसरे पाद का प्रथम सूत्र "नपोऽचोह स्वः' चिन्तामणी टीका में शाकटायन व्याकरण के प्रक्रियाकार ने “तत: पागार्यवज्रस्य" सूत्र को मूल सूत्र के पाठ में वात्तिक रूप में लिखा है न कि सूत्र रूप में, वह भी सम्पादक के द्वारा ही सम्पादित सूत्र पाठ में मिला है।
__ "बहूजि" इस शब्द में नुम् होता है आचार्य “आर्यवज्र' के मत से, क्योंकि “जालम्" इस सूत्र से जल जाति वाले को "नुम्" होजाता है जब कि अच् से परे हो तो, अतः यहाँ इससे न होकर आर्यवज्र के मत से किया है "बहूजि" "बहूजि" दो रूप होते हैं।
"अज्झेश्शतुः" १।२।१४ इस सूत्र से ५ शब्दों का नुम् होता है आचार्य आर्यवज्र के मत में जैसे-ददन्ति, ददति, दधन्ति, दधति, जक्षन्ति, जक्षति, जाग्रन्ति, जाग्रति, दरिद्रन्ति, दरिद्रति, चकासन्ति, चकासति, शासन्ति, शाासति, इत्यादि ।"
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