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व्याकरण में होने की सम्भावना ही नहीं रहतो, इसका विशेष स्पष्टीकरण आर्य वज्र के नाम की पाद टीका में पढ़िये।
- आचार्य शाकटायन जिनका दूसरा नाम 'पाल्यकीति' था, विक्रम की नवमी दशवीं शताब्दी के मध्याभाग में हो गये हैं, ये दिगम्बर जैन श्रमणों के यापनीय संघ के प्रधान आचार्य थे, राष्ट्र कूट वंशीय प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष के धर्मगुरु थे, पाल्यकीर्ति तथा अमोघ वर्ष का समय भट्टारक युग प्रारम्भ के बाद का है, भट्टारकों के समय में दिगम्बर परम्परा में जैन चैत्यों तथा जैन मठों में भूमिदान आदि देने लेने का पर्याप्त प्रचार हो चुका था, पूर्वकाल के त्यागी निर्ग्रन्थ श्रमणों की निस्पृहता नाम मात्र की रह गई थी। वे भूमिदान अपने नाम पर दिया हुआ स्वीकार करते थे और उसकी व्यवस्था स्वयं करते, अथवा अपने "वर्णी" नामक ब्रह्मचारियों तथा क्षुल्लकों से करवाते थे, भविष्य में श्रमण होने की भावना वाला व्यक्ति 'क्षुल्लक" नाम से सम्बोधित किया जाता था, तब ब्रह्मचारी प्रायः जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य पालता और वर्णी कहलाता था, वर्णी का तात्पर्य इतना ही है कि वह ब्राह्मणादि तीन वर्गों में से हो सकता था, शूद्र के लिए वर्णी बनने का द्वार बन्द था, पाणिनीय व्याकरण शास्त्र के आधार से ब्रह्मचारी को वर्णी नाम से सम्बोधित किया जाता था, इसलिए आचार्य शाकटायन को भी अपने व्याकरण में "वर्णी ब्रह्मचारी" (३ अ० ३ पा० १७३ सूत्र) यह सूत्र बनाकर ब्रह्मचारी का “वर्णी" नाम सिद्ध करना पड़ा।
यों तो शाकटायन व्याकरण पर "अमोघवृत्ति" आदि अनेक बड़ी बड़ी टीकाए होने का सम्पादकों ने इसकी प्रस्तावना में उल्लेख किया है, पर हमारी दृष्टि में अभयचन्द्र की प्रक्रिया के अतिरिक्त-चिन्तामणि टीका ही आई है अतः उसके सम्बन्ध में ऊहापोह आगे होगा।
अभयचन्द्र सूरि के सत्ता समय के सम्बन्ध में कोई बात विदित
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