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२२४ लये श्रीमत्परमपरमेष्ठिश्रीनेमिनाथश्रीपाददद्माराधनबलेनवादीभवज्रांकुश श्रीविशालकीर्तिपंडितदेव वैयावृत्त्यतः श्रीमच्छिलाहारकुल कमलमार्तण्डतेजः पुंजराजाधिराजपरमेश्वर परम भट्टारकपश्चिमचक्रवति श्री वीरभोजदेवविजयराज्ये शकवकसहस्रकशत सप्तविंशति ११२७ तम क्रोधनसंवत्सरे स्वस्ति समस्तानवद्यविद्याचक्र चक्रवर्तिश्री पूज्यपादारक्त चेतसा श्री मत्सोमदेवमुनीश्वरेण विरचितेयं शब्दार्णव चन्द्रिका नाम वृत्तिरिति ।"
इति श्री पूज्यपादकृतजनेन्द्र महाव्याकरणं सम्पूर्णम् ॥ उपर्युक्त दो टीकाओं के टीकाकारों की मंगल गाथाओं तथा समाप्ति लेखों से इतना तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि जिस व्याकरण की इन्होंने टीकाए लिखी हैं उसको ये पूज्यपाद की कृति मानते थे, और दोनों दक्षिणापथ के विचरने वाले थे, इस पर भी दोनों के पास व्याकरण के मूल आदर्श भिन्न-भिन्न थे, महावृत्तिकार ने पौने पांच सौ के लगभग वार्तिक बनाकर के व्याकरण को सम्पूर्ण बनाने की चेष्टा की है, तब आचार्य सोमदेव ने अपनी इस लघुवृत्ति में सभी मूलसूत्रों की व्याख्या की है जो महावृत्तिकार के ग्रहण किये हुए सूत्रों तथा वार्तिकों की संख्या से १३६ की संख्या में
अधिक हैं, चन्द्रिकाकार से महावृत्तिकार पूर्ववर्ती ज्ञात होते हैं, फिर भी उनको पूरे सूत्र नहीं मिले, जिससे वार्तिक बनाने पड़े हैं, यह एक रहस्य पूर्ण हकीकत है, महावृत्ति में द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद के ६६ वें सूत्र में आचार्य यशोभद्र के मत का निर्देश मिलता है, तब चन्द्रिका वाले शब्दार्णव में यह सूत्र परिवर्तित रूप में उसी अध्याय के उसी पाद के १६६ - सूत्र के रूप में मिलता है, जिसमें आचार्य यशोभद्र का नाम निर्देश नहीं है, सामान्य रूप से दोनों वृत्तियों के आदर्शों के मूल सूत्रों में बहुत ही आश्चर्यकारी विषमता है, साढे तीन हजार से अधिक सूत्रों में इने गिने ही सूत्र हैं जिनके कि क्रमाङ्क समान हैं । इस गडबड़ झोले का रहस्य क्या हो सकता है इसका निर्णय करना विद्वानों का प्रथम कर्तव्य है।
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