________________
२१६ गया है कि इसको पढकर शायद ही कोई विद्यार्थी व्याकरण के अभ्यास में सफल हो सके, इसमें न कोई संज्ञाओं का सिलसिला है, न सन्धि, स्त्री प्रत्यय, अव्यय, आख्यात, तद्धितादि का ठिकाना है, यह देखते हुए हमारा निश्चय हो चुका है कि यह सन्दर्भ पूज्यपाद आचार्य श्री देवनन्दी का नहीं हो सकता, किन्तु कुछ जैन शासन की प्रभावना करने वाले अतिश्रद्धावान् आचार्यों की शासन सेवा है, इस पर टीकाकारों का भी इसी प्रकार की सेवा का प्रयास है, दिगम्बर परम्परा के अनेक ऐसे ग्रन्थों का हमने पता लगाया है कि जिनके रचयिता बहुत ही अर्वाचीन विद्वान् हैं, पर उनकी वे कृतियां अति प्राचीन माने जाने वाले आचार्यों के नाम चढा दी गई हैं, जिनमें "तिलोय-पण्णत्ति" "षट् प्राभूत' आदि उल्लेखनीय हैं।
दोनो मूल ग्रन्थों के सूत्रों का मिलानशब्दार्णव चन्द्रिका के अनुसार महावृत्ति के अनुसार सूत्र क्रम
सूत्र क्रमअध्याय पा० सू०-- अध्याय पा० सू० १ १ १ सिद्धिरनेका० १ १ सिद्धिरने २ सात्मे०
२ स्थानक्रि० ३ स्वस्या०
३ हलोऽनन्तरा० ४ सस्थान
४ नासिक्यो ५ आकाले०
५ अधुमृत् ६ अचश्च.
६ कृदधृत्सोः ७ नासिक्यो०
७ प्रो नपि ८ हलोऽनन्तरा०
८ स्त्री गो० " " अधुमृत
६ दृदुप्युप् " ॥ १० कृदधत्साः
१० इद्गोण्याः " , ११ प्रो नपि
" ॥ ११ आकोलो० ,, १२ गोण्या मेये
" ॥ १२ अचश्च
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org