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पृ० ६७ महावृत्तौ - ' शान्तिचरित पट्टक प्रसारण मनु प्रावर्षत पर्जन्यः । " "उपसिंहनन्दिनं कवयः, उपसिद्धसेनं वैयाकरणाः।"
" अनूषिवान् श्री दत्तं धान्यसिंहः ।"
"उपसुश्रुवान् श्री दत्तं धान्यसिंहः । " "दैवनन्दिनमनेकशेषं व्याकरणम् ।" “बलदेवेन कृताः, बालदेवाः श्लोकाः ।" " वाररुचा:, सिंहनंदीया: । "
पृ० २१४
"वृद्धि प्रयच्छति वार्धुषिकः । " जैनेन्द्र व्याकरण आचार्य देवनन्दी की कृति मानी जाती हैं, परन्तु इसमें जिन-जिन आचार्यों के मत का उल्लेख किया है, उनमें एक भी व्याकरणकार होने का प्रमाण नहीं मिलता, हमें तो ज्ञात होता है कि पिछले किन्हीं दिगम्बर जैन विद्वानों ने पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों को अस्त-व्यस्त कर यह कृत्रिम व्याकरण बना कर देवनन्दी के नाम पर चढ़ा दिया है, त्रिविक्रम देव के तथा श्रुतसागर के प्राकृत व्याकरणों में जिस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के सूत्रों को अस्त-व्यस्त तथा आगे पोछे किया गया है, उसी प्रकार जैनेन्द्र में भी पाणिनीय सूत्रों को आगे पीछे कर तथा कुछ परिभाषाओं को बदलकर यह "जैनेन्द्र-व्याकरण" निर्मित किया गया है ।
देवनन्दी के तीन नामों में जिनेन्द्र-बुद्धि नाम बताना भी पिछले भट्टारकों की करामात है, व्याकरणकार तो क्या ? इनको वैद्यक ग्रन्थों के रचयिता तक मान लिया है और इनके नाम चढे हुए कुछ तो वैद्यक के रस विषयक प्रकरण छप भी चुके हैं, जो देवमन्दी का महत्त्व बढाने के बजाय इनको चारित्र हीन सिद्ध करते हैं ।
पृ० १११
पृ० २०५
इसी प्रकार प्रस्तुत व्याकरण में अन्यान्य जैन विद्वानों के नामों का निर्देश करके यह बताने की चेष्टा की गई है कि जैनों में भी प्राचीन काल में अनेक वैयाकरण आचार्य हो चुके हैं, जिनके व्याकरणों का आधार लेकर आचार्य देवनन्दी ने जैन व्याकरण नया तैयार किया है, परन्तु इस व्याकरण का ढांचा ही इतना बिगड़
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