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________________ २१४ जैनेन्द्र व्याकरण-महावृत्ति जैनेन्द्र व्याकरण महावृति के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण यह है महावृत्तिकार अभयनन्दी को आठवीं शताब्दी का माना जाता है, परन्तु कई इनके खुद के उल्लेखों से ये अर्वाचीन प्रतीत होते हैं । पाणिनीय अष्टाध्यायी की काशिका वृति का उपयोग तो इन्होंने किया ही है, परन्तु काशिका से बहुत अर्वाचीन ग्रन्थों के भी प्रतीक इन्होंने लिए हैं जो आगे दिये जायेंगे। _____पं० नाथूरामजी के अनुसार जैनेन्द्र पर प्रथमा अभयनन्दी की "महावृति", द्वितीय प्रभाचन्द्र कृत "शब्दाम्भोजभास्कर न्यास', तृतीया श्रुतकीर्ति की पंचवस्तु प्रक्रिया, चतुर्थी पं० महाचन्द्र कृत लघु जैनेन्द्र नामक वृत्ति है, जो प्रायः सभी दसवीं शताब्दी के बाद की होनी चाहिए। श्री युधिष्ठिर मीमांसक के मत से श्री अभयनन्दी का समय विवादास्पद, है फिर भी इन्होंने "संस्कृत व्याकरण का इतिहास" नामक ग्रन्थ में इनका समय ग्यारहवीं शती के आसपास का माना है। मूल सूत्रों में भिन्न भिन्न प्रकरणों में अलग अलग आचार्यों के आये हुए नामपृ० ६६ मूल सूत्र "कृ-वृषि-मजां यशोभद्रस्य १२।१।६६।" पृ० २३०- " राद् भूतबले: ।३।४।८३।" " रात्र्यहः संवत्सरात् ।३।४।८४।" " वर्षादुप् ।३।४।८५।" प० ३१०- “रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य ।४।३।१८०।" पृ० ३३८- “वेत्त: सिद्धसेनस्य ।५।१७।" पृ० ४१८- “चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ।५।४।१४०।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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