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आकाशः । आकाशस्यापि संयोगिद्रव्यान्तरकृते भेदे सति तन्नि मित्तस्तेषां पौर्वापर्यव्यवहारः । ततस्तु सर्वदिक्कास्तद्रूपप्रतिबिम्बाव ग्रहिणो मंदप्रदीप प्रकाशित रूप भान क्रमेण प्रभासमाना ये वर्णश्रुति विभाजन्ति ते ध्वनय इत्युच्यन्ते । नित्यत्वपक्षे तु संयोग विभागज ध्वनि व्यंग्यः स्फोट: केषां चिन्मतम् । अन्येषां संयोग विभाग फलजध्वनि सम्भूतनादाभि व्यंग्यः इति मतम् । तत्र पूर्वावस्थास्ते ह स्वदीर्घादि व्यवहार हेतवः, यथोत्तरमुपचीयमानाभिव्यक्तयस्तु ध्वनयो नादा वा द्रुतादि वृत्ति भेद व्यवस्था हेतव इति बोध्यम् ।।१०३॥" पृ० प्र० का-६४--
" स्फोट शब्दो, ध्वनिः शब्दगुण इति । स्फोटश्च द्विविधो बाह्य आभ्यन्तरश्चेति । बाह्योऽपि जातिव्यक्तिभेदेन द्विविधः । तत्र जातिलक्षणस्य जातिः संघातवर्तिनीति । व्यक्तिलक्षणस्यैकोनवयव शब्द इति । आभ्यन्तरस्य तुबुद्धनुसंहतिरित्यनेनोद्देशः । तत्र जातिः व्यक्ति लक्षणस्य बाह्यस्य यथैक एवेत्यादिना । पुनरव्यक्तः क्रमवानित्यादिना ग्रन्थेन स्वरूपमुक्तम् ।” तृ० का० पृ० १६८
ग्रन्थ के तीसरे काण्ड के सातवें समुद्देश की ३४ वीं कारिका से फुल्लराज की कृति बतलाई है।
ग्रन्थ के अन्त में सम्बन्ध विभक्ति की व्यवस्था अपूर्ण ही है, तथा वहां ग्रन्थ की समाप्ति बताये बिना ही त्रुटित रखा है, इससे ज्ञात होता है कि ग्रन्थ इतना ही मिला है।
ग्रन्थ के मूल कर्ता और टीकाकारों की प्रशस्ति भी नहीं है, अतः यह ज्ञात होता है कि ग्रन्थ अपूर्ण ही मिला तथा प्रकाशित हुआ।
भर्तृहरि के पूर्वगामी निबन्धकार का नाम टीकाकार ने वसुरात लिखा है जो ठीक प्रतीत नहीं होता, हमारी राय में उनका नाम "वसुराज" होना चाहिये था, क्योंकि पुण्यराज, भूतिराज हेलाराज तथा इसी विषय के निबन्धकार का नाम फुल्लराज हाने से यह नाम भी "वसुराज ही होगा जो अशुद्ध होकर वसुरात हो गया है, वास्तव में "रातान्त' नाम संस्कृत नहीं है, न इस प्रकार के नाम संस्कृत साहित्य में पाये जाते हैं ।
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