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________________ २११ अण्डभावमिवापन्नो, यः क्रतुः शब्दसंज्ञकः । वत्तिस्तस्य क्रियारूपा, भागशो भजते क्रमम् ॥५१॥ यथैकबुद्धिविषया, मूर्तिराक्रियते पटे । मूर्त्यन्तरस्य त्रितयमेवं शब्देऽपि दृश्यते ॥५२॥ 'जिस प्रकार ज्ञान में आत्मरूप, तथा ज्ञेयरूप दोनों का प्रतिभास पड़ता है, उसी प्रकार शब्द में अर्थरूप तथा अपना रूप दोनों प्रकाशित होते हैं। जिस प्रकार सर्व विभागों को हटाकर बाह्य व्यावहारिक शब्द अन्तःकरण में मयूराण्ड के रस की तरह विभागीय मात्रा को लांघ कर लीन होकर रहता है, इस प्रकार वह विभागहीन बना हुआ शब्द, वक्ता की विवक्षा को पाकर वाक्य पदादि के विवों को प्राप्त कर अपने में अवयवों को बनाता हुआ क्रम-शक्ति को उत्पन्न करता है, वह क्रम-शक्ति इसके उदयास्त की क्षीण मात्रा जान पड़ती है, जिस प्रकार वस्त्र पर एक बुद्धि से किसी की मूर्ति का आकार चित्रित किया जाता है, उस पर से मित्ति फलक आदि पर क्रम से अन्यमूर्तियां भी बनायी जा सकती हैं, उसी प्रकार वैखरी-भाषात्मक शब्द सूक्ष्मा, सूक्ष्मत्तर, सूक्ष्मतमरूप मध्यमा, पश्यन्ति और परा नामक अपने अन्य तीन रूपों को प्राप्त करती हैं । '५०।५११५२।' वैखरी आदि चार भाषाओं का वर्णन "वैखर्या मध्यमायाश्च, पश्यन्त्याश्चैतदद्भुतम् । अनेकतीर्थभेदाया-स्त्रय्या वाचा परं पदम् ॥१४४॥ जिसको कानों से सुना जाता है उसको "वैखरी" कहते हैं, श्लिष्ट वर्णा, व्यक्तवर्णा, उच्चारण शुद्धा, निर्दोषा और भ्रष्टसंस्कारा तथा दुन्दुभि-वांसली-वीणा आदि ध्वन्यात्मिका वैखरी भाषा कही जाती है। (२) “मध्यमा" कण्ठ से नीचे रही हुई, क्रम प्राप्त और बुद्धि वर्णात्मिका होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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