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२.८
ऊपर की कारिकाओं का पुण्यराज की टीका के अनुसार नीचे लिखे अनुसार विवरण है
'पूर्वकाल में पाणिनीय व्याकर के ऊपर विद्वान व्याडि का लक्ष श्लोक परिमित महानिबन्ध बना हुआ था, परन्तु कालक्रम से विद्यार्थियों की बुद्धि मन्द होती गई, धीरे धीरे उक्त महानिबन्ध का पठन-पाठन बंद हो गया और वह निबन्ध कालान्तर में नष्ट हो गया, व्याकरण के सिद्धान्त ग्रन्थ की यह दशा देखकर दयालु पतञ्जलि मुनि ने व्याडि के निबन्ध के स्थान पर पाणिनीय व्याकरण सूत्रों तथा वार्तिकों पर महाभाष्य की रचना की, यह ग्रन्थ अल्प बुद्धि तथा संक्षिप्त रुचि विद्यार्थी पढ सके और व्याकरण के सभी सिद्धान्तों को समझ सके इस दृष्टि से बनाया गया था, इसमें व्याकरण संबंधी सभी सिद्धांतों के सार ले लिए थे, भाष्य का गाम्भीर्य अगाध होने पर भी ऐसे सुबोध शब्दों से रचा गया जो ऊपर से सरल ज्ञात होता है, परन्तु इसमें तीक्ष्ण बुद्धि विद्यार्थी ही व्याकरण सम्बन्धी सिद्धान्तों का निश्चय कर सकते हैं, इस कारण से यह महानिबन्ध "भाष्य" न रहकर "महाभाष्य" हो गया है।' ४८४।४८५।४८६।
'पातंजल-महाभाष्य व्याडि के संग्रह से संक्षिप्त था, व्याडि के कतिपय सिद्धान्तों से महाभाष्य के कतिपय सिद्धान्त विरुद्ध भी पड़ते थे, इन बातों को आगे करके बैजि, सौभव, हर्यक्ष आदि संग्रह के पक्षपाती विद्वानों ने महाभाष्य का खूब विरोध किया, तर्कजाल से भाष्य के सामने इतना विरोध का बवण्डर खड़ा किया कि जहां महाभाष्य का पठन पाठन चलता था, वहां इसके पढनेपढाने वाले ही नहीं रहे, पातंजल के पढ़ने वाले तो न रहे बल्कि उसकी पोथी तक उस प्रदेश से अदृश्य हो गई, पातंजल भाष्य जो उसके पढ़ने वालों के हाथ से चला गया था, उसकी एक पोथी दक्षिणा पथ में पर्वतीय प्रदेश में सुरक्षित रह गई थी, कालान्तर में उसको पाकर चन्द्राचार्य आदि विद्वानों ने महाभाष्य का प्रचार किया और उसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने के साथ-साथ उसके पठन-पाठन का प्रचार किया, गुरु वसुरात ने भाष्य के विरुद्ध की
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