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________________ भाग में २०वां उद्देशक पूरा होने के बाद जो ३ प्राकृत गाथाओं में विशाख गणी की प्रशंसा में प्रशस्ति दी है, वह वास्तव में कल्पित है, इसका निर्मापक भी कोई सामान्य व्यक्ति है, इसी से गाथाओं में छन्दो विषयक और व्याकरण विषयक अनेक भूलें दीख रही हैं, इतना ही नहीं गाथाओं में से जो अर्थ ध्वनित होता है, उससे भी ये गाथाएँ अर्वाचीन और असंगत प्रतीत होती हैं, नियुक्ति और भाष्य को तो जाने दीजिये, सबसे अर्वाचीन निशीथ विशेष चूणि में तथा २०वें उद्देशक की संस्कृत वृत्ति में जो १२वीं शती की कृति है, उक्त गाथाओं का कहीं सूचन मात्र नहीं, इससे निश्चित हो जाता है कि ये गाथाएँ किसी अर्द्ध दग्ध पण्डित ने बनाकर प्रतिलेखक को दे दी है और उसने अपने किसी लिखे हुए “निशीथ" के पुस्तक के अन्त में लिख डाली हैं, यही कारण है कि प्राचीन निशीथ प्रतियों के अन्त में कहीं भी उक्त गाथाएँ दृष्टिगोचर नहीं होतीं, इस प्रकार की अप्रामाणिक और अशुद्ध गाथाओं के आधार से निशीथ का कर्ता विशाख गणि को मान लेना सम्पादकों की अदीर्घदर्शिता है। निशीथाध्ययन अन्तिम श्रतधर आर्यरक्षित की कृति है, यह बात इस अध्याय के अन्तरंग निरूपण से ही स्पष्ट हो जाती है और इस बात को ग्रन्थ के अन्तर्गत कुछ निर्देशों से भी प्रमाणित किया जा सकता है। निशीथाध्ययन के प्रथम उद्देशक के १३वें सूत्र में "शिक्यक" की चर्चा की गई है, वह सूत्र निम्नोद्ध त है "जे भिक्खू सिक्कगं वा सिक्कणंतगं वा अएणउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेति, कारेंतं वा सातिजति ॥ सू० १३ ॥" ___ 'जो भिक्षु शिक्यक को अथवा शिक्यक के योग्य वस्त्र को अन्य तीथिक साधु से अथवा गृहस्थ से तय्यार करवाये, अथवा करते हुए का अनुमोदन करे, वह अनुद्घातित मासिक परिहार स्थान को प्राप्त होता है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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