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निर्ग्रन्थ श्रमण की उपधि में स्थविर भद्रबाहु के समय में शिक्यक को कोई स्थान नहीं था, परन्तु आर्यरक्षित सूरिजी ने निर्ग्रन्थ श्रमण श्रमणियों की उपधि को जब अन्तिम रूप दिया, तब शिक्यक को भी औपग्रहिक उपधि के रूप में स्वीकार किया, इसी कारण से पिछले आचार्यों ने शिक्यक को आगमिक उपकरण न मान कर " कप्पाणं पावरणं" इत्यादि गाथा के "ओवग्गहिअ कडा" इस तृतीय चरण में प्रयुक्त " कटाहक" नाम से "शिवयक " को आचरणा से माने हुए उपकरणों में परिगणित किया है, श्रमणों को गृहस्थ के वहां तैयार “शिक्यक" के लिए लेने की अनुज्ञा दी गई है, परन्तु वे इस उपकरण को अन्य धर्मी साधु के द्वारा अथवा गृहस्थ के द्वारा तय्यार करवाके न लें, इस उद्देश से आचार्य को उपर्युक्त १३वां सूत्र बनाना पड़ा है ।
इस सम्बन्ध में चूर्णिकार कहते हैं - मुख्यवृत्त्या तो “शिक्यक" उपकरण न होने के कारण रखना ही नहीं चाहिए, अपवाद रूप में ही "शिक्यक" रखा जाय, खास करके लम्बी मुसाफिरी में साथ रखना जरूरी होता है, अथवा बीमार साधु के लिए लाया हुआ औषध रखने के लिए “शिक्यक" जरूरी होता है और वह पहले से तय्यार किया गया हो तो गृहस्थ से मांगकर लेना चाहिए, यदि पूर्वकृत न मिले तो उसका सामान गृहस्थ से प्राप्त कर " शिक्यक" स्वयं बनाना चाहिए ।
प्रथम उद्देशक के ही १४वें सूत्र में "चिलिमिलि " का विधान बताया गया है, वह सूत्र निम्नोद्भुत है
" जे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलिमिलिं - उत्थिर वा गारत्थिए वा कारेति कारेंतं वा सातिजति ।। सू० ।। १४ ।। "
अर्थात् - 'जो भिक्षु सौत्रिक अथवा रज्जुमयी चिलिमिलि को अन्य तीर्थिक द्वारा अथवा गृहस्थ द्वारा तय्यार करवाये, अथवा
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