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उन्हें विक्रम की दूसरी शताब्दी में रखते हैं, परन्तु प्रथम तो दूसरे भद्रबाहु के अस्तित्व में कोई प्रमाण नहीं मिलता, श्वेताम्बरों के अर्वाचीन कथा साहित्य में जो भद्रबाहु की कहानी आती है, वह भी श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ संगत नहीं होती, क्योंकि इस प्रकार के कथानकों में भद्रबाहु को प्रसिद्ध ज्योतिषी बराहमिहिर का भाई माना है, वराहमिहिर का अस्तित्व विक्रम की सातवीं शती के प्रारम्भ तक विद्यमान था, इस स्थिति में वराहमिहिर और भद्रबाहु को सगे भाई मानना निराधार मात्र है।
दिगम्बर साहित्य में दूसरे ज्योतिषी भद्रबाहु को दूसरी शताब्दी में रखा जाता है, इसका आधार केवल "आदि पुराण' का कथन है, आचारांगधरों में तीसरे आचारांगधर भद्रबाहु थे, ऐसा “आदि पुराण'' के कथन से जाना जाता है, परन्तु इन्हीं आचारांगधर तृतीय स्थविर का नाम “त्रिलोक-प्रज्ञप्ति", "जयधवला' की प्रशस्तियों में "यशोबाहु' है, तब "श्रुतावतार कथा” में “जयबाहु" यह नाम मिलता है, इस प्रकार आचारांगधर भद्रबाहु नाम के साथ आदि पुराणकार जिनसेन के सिवा दूसरा कोई सहमत नहीं होता।
दूसरा आदि पुराणकार जिनसेन अपने पुराण का निर्माण समय जो शक संवत् ७०५ होना बताते हैं, वह शक काल वास्तव में कलचुरी संवत्सर है, जो विक्रम संवत् १०६५ में पड़ता है, इस प्रकार विक्रमीय ११वीं शती के उत्तराद्ध के एक ग्रन्थकार के उल्लेख मात्र से दूसरे भद्रबाहु का अस्तित्व प्रमाणित नहीं हो सकता, सच बात तो यह है कि भद्रबाहु नामक आचार्य जैनों में एक ही हुए हैं, जो चतुर्दश पूर्वधर थे और मौर्य चन्द्रगुप्त के समय में विद्यमान थे, उनके संघ के साथ दक्षिण में चले जाने, मौर्य चन्द्रगुप्त के उनका शिष्य होकर विशाखाचार्य होने आदि की कहानियां अर्वाचीन काल की कल्पनाएं हैं।
श्वेताम्बर साहित्य में विशाखाचार्य अथवा विखाखगणि आदि नामों के उल्लेख मात्र भी नहीं हैं, मुद्रित निशीथ चूणि के अन्तिम
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