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निशीथाध्ययन के प्रारम्भ में नियुक्ति और भाष्य की सम्मिलित ४६६ गाथाओं का समूह है, चूणिकार ने इस गाथाकदम्बक को "निशीथ पीठिका" यह नाम दिया है । पीठिका में आठ-आठ प्रकार के ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार और बारह प्रकार के तप आचार का सविस्तर निरूपण करके इन प्राचारों में होने वाली स्खलनाओं का प्रायश्चित्त लिखा है और कहा है कि इन ३६ प्रकार के आचारों की आराधना में मानसिक, वाचिक, कायिक शक्ति को गोपने से तत् तत्-स्थान में होने वाले प्रायश्चित्त की आपत्ति होती है, इसके अतिरिक्त दो प्रकार से पंचविध वीर्य का निरूपण किया है, प्राचारों का सदृष्टान्त सप्रायश्चित्त निरूपण करने के बाद 'अग्र, प्रकल्प, चूला, निशीथ और प्रायश्चित्त' द्वारों का निरूपण किया है, अन्त में मूलगुण प्रतिसेवना और उत्तरगुण प्रतिसेवना का सविस्तर निरूपण करके निशीथ पीठिका को समाप्त किया है।
पीठिका की समाप्ति के बाद निशीथाध्ययन का प्रारम्भ किया गया है । सूत्र नाम के ऊपर "प्राचार्य प्रवर श्री बिसाह गणि विनिर्मितं सभाष्यं निशीथसूत्रं' ऐसा लिखा है, यहां पर हमें "विसाह गणि" के सम्बन्ध में दो शब्द कहने हैं।
दिगम्बर ग्रन्थों की कुछ प्रशस्तियों में भद्रबाहु श्रुतकेवली के बाद विशाखाचार्य का नाम मिलता है और उन्हें दशपूर्वधरों में पहला गिना है । दिगम्बरीय पौराणिक कथाओं में इन विशाखाचार्य को गृहस्थावस्था में मौर्य राजा चन्द्रगुप्त माना है, परन्तु प्रथम तो चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में श्रुतकेवली भद्रबाहु के दक्षिण प्रदेश में जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता, श्रवणबेलगोल आदि स्थानों से उपलब्ध जैन शिलालेखों में विक्रम की अष्टमी शती तक के किसी भी लेख में श्रुतधर भद्रबाहु के दुष्काल के कारण दक्षिणा पथ में जाने की बात नहीं है, भद्रबाहु के दक्षिण में जाने की बात बहुत अर्वाचीन है और इसी कारण से विचारक दिगम्बर विद्वान् भी दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु को द्वितीय भद्रबाहु मानते हैं और
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