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________________ ४ निशीथ विशेष चूर्णि हमारे "शास्त्र संग्रह " में हस्तलिखित और मुद्रित दोनों विद्यमान हैं, दोनों को हमने पढ़ा है और दोनों पर से नोट भी लिये हैं । विशेष चूर्णि के कर्ता आचार्य श्री जिनदासर्गाणि महत्तर हैं, जो विक्रम की आठवीं शती के प्रसिद्ध प्राकृत टीकाकार हैं, आचार्य जिनदास गणि किस कुल और गण के थे इसका खुलासा कहीं नहीं मिलता, सिर्फ मंगलाचरण के अन्त में आपने अपने अनुयोगदायक प्रद्युम्नक्षमाश्रमण को नमस्कार किया है और उनको 'चरणकरण पालक' बताया है । मुनि सुन्दरसूरि की “गुर्वावली" में श्री यशोदेवसूरि के बाद एक प्रद्युम्नसूरि का उल्लेख मिलता है और उसके बाद उपधान वाच्य ग्रन्थकार मानदेवसूरि का, परन्तु इसके बाद "गुर्वावली" के भीतर ही गुर्वावलीकार लिखते हैं- "केचिदिदं सूरिद्वयमिह न वदन्ति" अर्थात् 'कितने ही आचार्य इस स्थान पर प्रद्युम्नसूरि और मानदेवसूरि को नहीं गिनते' इस परिस्थिति में प्रद्युम्नसूरि का 'गण' और 'कुल' क्या था, यह निश्चित कहना असंभव है । " पाकश्री" नामक एक प्राकृत भाषा के प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ के टीकाकार वररुचि ने अपने को प्रद्युम्नसूरि का शिष्य लिखा है, "पाक श्री " ग्रन्थ यद्यपि प्राचीन है तथापि विद्वान् टीकाकार वररुचि और उसके गुरु प्रद्युम्नसूरि को विक्रम की अष्टम शती के व्यक्ति मानने में कोई बाधक नहीं है, इन संयोगों में यशोदेवसूरि के शिष्य प्रद्युम्नसूरि और वररुचि के गुरु प्रद्युम्नसूरि को एक मानकर उन्हें निशीथ चूर्णिकार आचार्य जिनदास गणि महत्तर के अनुयोगदायक आचार्य मानने में कोई बाधक नहीं है । प्रद्युम्नसूरि को तपागच्छ की परम्परा में प्राचीन तपगच्छ के आचार्यों में दो मत थे, इस के लिहाज से भी प्रद्युम्नसूरि को तपागच्छ की परम्परा में मानना संगत प्रतीत नहीं होता । Jain Education International मानने की बाबत में कारण से और समय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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