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ऐसी प्रवृत्तियां श्रमण समुदाय में दृष्टिगोचर और कर्णगोचर होने लगी थीं, जो नवीन दण्डविधान द्वारा ही रोकी जा सकती थीं, अतएव श्रुतधर श्री आर्य रक्षितसूरिजी ने एक-एक बात को ध्यान में लेकर “निशीथाध्ययन" को २० उद्दे शकों में पूर्ण किया, “कल्पाध्ययन' में केवल ६ उद्देशक थे और " व्यवहार" में १० उद्देशक, परन्तु नवनिर्मित " निशीथाध्ययन" में आचार्य ने २० उद्देशक और लगभग १४२६ सूत्रों में प्रायश्चित्त का संग्रह किया और तब से केवल निशीथाध्ययन का पाठी श्रमण भी जघन्य कोटि का गीतार्थ माना जाने लगा ।
पंचकल्पभाष्य - चूर्णिकार ने कल्प, व्यवहार आदि के साथ निशीथाध्ययन भी श्रुतधर भद्रबाहु स्वामी द्वारा पूर्वश्रुत से उद्धृत बताया है, परन्तु वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है, "बृहत्कल्प" की भाषा और प्रतिपादित विषयों तथा निशीथाध्ययन के सूत्रों की भाषा और उसमें प्रतिपादित विषयों में स्पष्ट रूप से भिन्नता प्रतीत होती है, यद्यपि बृहत्कल्प की भाषा और व्यवहाराध्ययन की भाषा भी एक दूसरी से भिन्न ही प्रतीत होती है इसमें कोई शंका नहीं, परन्तु यह भिन्नता व्यवहार में बाद में किए गए परिवर्तनों का परिणाम है, इतना ही नहीं “व्यवहार सूत्र" में "निशीथाध्ययन" का " प्रकल्पाध्ययन" यह नाम आना भी पिछले परिवर्तनों का ही परिणाम है और ये परिवर्तन सम्भवतः आर्य रक्षितसूरि के बाद के हैं ।
आर्य स्कन्दिल के समय में मथुरा में की गई वाचना और पुस्तकालेखन के समय में उक्त परिवर्तन हुए हों तो असम्भवित नहीं है ।
निशीथाध्ययन पर दो प्राकृत चूर्णियां हैं, एक सामान्य चूर्णि और दूसरी विशेष चूणि, सामान्य चूर्णि हमने देखी नहीं है, किन्तु उसके नामोल्लेख जरूर पढ़े हैं, किसी प्राचीन पुस्तक भंडार में हो तो प्राकृत भाषा के अनुरागियों को उसकी तलाश करनी चाहिए ।
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