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________________ केवलज्ञानी, मनपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर और नौपूर्वधर तक जो प्रायश्चित्तविषयक व्यवहार चलता था, वह “आगम व्यवहार" कहलाता था। आर्य रक्षितसूरिजी के स्वर्गवास के बाद आगम व्यवहार का धीरे-धीरे विच्छेद हुआ, केवल श्रुतव्यवहार, आज्ञाव्यवहार, धारणाव्यवहार और जीत व्यवहार ये चार व्यवहार प्रायश्चित्त विषयक रहे, आज्ञा और धारणा व्यवहार कादाचित्क-अव्यापक होने से धीरे-धीरे लुप्त प्राय हुए हैं, शेष श्रुत और जीत व्यवहार प्रधान रहे, जब तक आगम व्यवहार रहा तब तक “उत्कृष्ट गीतार्थ' भी रहे, जब से आर्यरक्षितसूरि तथा इनके शिष्य आर्य दुर्बलिका पुष्यमित्र परलोकवासी हुए तब से उत्कृष्ट गीतार्थता भी समाप्त हो चली। शेष पूर्व, दशा, कल्प, व्यवहारादि सम्पूर्ण छेद श्रुत जानने वाले “मध्यम गीतार्थ" माने जाते थे, तब निशीथाध्ययन का सूत्र और अर्थ जानने वाला 'जघन्य गीतार्थ' माना गया। ___आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने कल्पाध्ययन और व्यवहाराध्ययन में जो प्रायश्चित्त विधान किया था, वह तत्कालीन निर्ग्रन्थ श्रमणश्रमणियों के लिए पर्याप्त था, परन्तु आर्य रक्षितसूरिजी के समय तक स्थिति ने बहुत ही पलटा खाया, मौर्यकालीन दुर्भिक्षादि विषमकाल की समाप्ति के उपरान्त सम्प्रति-मौर्यकाल में बढी हुई जैन श्रमण-श्रमणियों की संख्या के साथ-साथ अनेक प्रकार की नयी समस्याएँ खड़ी हुई, उनको सुलझाने के लिए कल्प, व्यवहार अपर्याप्त प्रतीत हुए, परिणाम स्वरूप आचार्य आर्यरक्षितसूरिजी ने नवीन परिस्थिति को काबू में रखने के लिए कल्प, व्यवहार को ध्यान में रखते हुए पूर्वकालीन और वर्तमान समय में उत्पन्न होने वाले नये नये दोषों और दुष्प्रवृत्तियों को रोकने के लिए निशीथाध्ययन का निर्माण किया। - एक तो अवसर्पिणी काल और दूसरी श्रमण श्रमणियों की संख्या में अतिवृद्धि, इन दो कारणों से आर्य रक्षित के समय सैंकड़ों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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