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(१) निशीथ सूत्र का निर्माण और निर्माता
जैन सिद्धान्तोक्त छेद सूत्रों में “निशीथ सूत्र" का नम्बर ४ है, छेद सूत्रों में सर्वप्रथम दशाश्रुतस्कन्ध परिगणित किया जाता है, यद्यपि कल्प, व्यवहार आदि की तरह दशाश्रुतस्कन्ध में प्रायश्चित्त का विधान नहीं है, फिर भी दशाओं में ऐसे उपयोगी विषय भरे पड़े हैं, जिनको जानकर केवल आचार्य ही नहीं, सामान्य साधु तक अपने संयम को शुद्ध रखता हुआ बड़े बड़े दोषों से बच सकता है, यही कारण ज्ञात होता है कि “दशाश्रुत स्कन्ध' की गणना छेदों में की गई है, क्योंकि छेद सूत्र का तात्पर्य दोषों से बचाना और प्रमादवश लगे हुए दोषों की विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त विधान करना मात्र है, दशाश्रुतस्कन्ध इन दो में से प्रथम दोषों से बचाने में विशेष उपयुक्त है।
"बृहत्कल्प" और "व्यवहार" इन दो सूत्रों का विषय साधुओं के आचार का प्रतिपादन करना और आचार में होने वाली स्खलनाओं का निरूपण करने के साथ श्रमण मार्ग में प्रमाद अथवा दर्प के वश लगने वाले अपराधों की शुद्धि करने वाले प्रायश्चित्तों का निरूपण करना है, कल्प में प्रायश्चित्त देने की व्याख्या सामान्य रूप से प्रतिपादित की है, तब व्यवहार में उसका विशेष विस्तार के साथ विवरण दिया है और सामूहिक प्रायश्चित्त दान की विधियाँ लिखी हैं।
___कल्प और व्यवहार दोनों अध्ययन श्रुतधर आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने पूर्व श्रुत से पृथक् करके तत्कालीन साधुओं के लिए प्रायश्चित्त दान का मार्ग सुगम किया है।
निशीथाध्ययन आगम व्यवहारी आचार्य आर्य रक्षितसूरिजी ने पूर्वश्रुत से पृथक् करके वर्तमान कालीन साधुओं के लिए विशेष उपयोगी बनाया है।
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