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________________ २०१ आचार्य पाणिनि के व्याकरण में शाकल्य, स्फोटायन, गालव, काश्यप, भारद्वाज, गार्ग्य और चाक्रवर्मण इन आचार्यों के मत के मूल सूत्रों में उल्लेख किये गये हैं, इससे ज्ञात होता है कि पाणिनि के समय में उनके पूर्ववर्ती पूर्वोक्त आचार्यों के व्याकरण सिद्धान्त भिन्न भिन्न चरणों में ग्रन्थ रूप में चलते होंगे, पाणिनीय व्याकरण में आदि से अन्त तक प्रत्येक अध्याय के प्रत्येक पाद में उदात्त, अनुदात्त, तथा स्वरित की अनुवृत्ति चलती रहती हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि भाष्यकार द्वारा की गई उदात्तादि स्वरों की चर्चा वैदिक व्याकरण की भाषा से सम्बन्ध रखती है, उस समय वैदिक शब्दों के उच्चारण में ही नहीं परन्तु लौकिक शब्दों के उच्चारण में भी, उदात्त के स्थान पर उदात्त, अनुदात्त के स्थान पर अनुदात्त और स्वरित के स्थान पर स्वरित के रूप में वर्गों का ठीक उच्चारण होता है या नहीं, इस बात की बड़ी ही सावधानी रखी जाती थी, वैदिक व्याकरण में जो जो नियम लौकिक से भिन्न थे वे "छन्दसि" इत्यादि उल्लेखों के साथ आचार्य ने जुदे बता दिये हैं । पूरा अध्याय अथवा पूरा एक पाद भी केवल वैदिक प्रक्रिया के लिए कहीं नहीं रोका। आचार्य पतञ्जलि ने पाणिनीय व्याकरण के एक-एक सूत्र और वाक्य का विशद विवरण देकर, इसे जैसा स्पष्ट किया है, वैसा दूसरे शायद ही किसी टीकाकार ने किया होगा, इन्होंने एक एक बात को उलटा सुलटा कर समझाया है और जहां कहीं किसी आचार्य के साथ मतभेद देखा उसका स्पष्ट नाम निर्देश तक कर दिया है। पाणिनि के अतिरिक्त भी जिन जिन वैयाकरणों के मतभेद दृष्टिगोचर हुए हैं उनका भी नाम दिया है। जैसे "कौष्ट्रीयाः, शाकल्यस्याचार्यमतेन, भारद्वाजीया: पठन्ति, गोनर्दीयस्त्वाह, गालवस्य गार्ग्यस्य, वार्ष्यायणि इति आह, वरतनोः, दाक्षायणस्य, कौत्सः, शाकटायनस्य, साकल्यस्य, काशकृत्स्नेः, एवंहि सौनागा पठन्ति, पौष्करसादेराचार्यस्य, वाररुचकाव्यम्, आपिशल-पाणिनीय, व्याडीय-गोत्तमीया, सौर्य भागवतोक्तमनिष्टिज्ञो वाडवः पठति," Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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