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________________ २०२ इत्यादि भिन्न भिन्न प्रकार के उल्लेखों द्वारा अपने समय में वर्तमान अनेक व्याकरणकारों और अध्यापकों की प्रवृतियां का अपने भाष्य में सूचन किया है, जिनमें से शाकल्य, स्फोटायन, प्रभृति सात आठ आचार्य तो पाणिनीय के पूर्ववर्ती थे, आपिशली, पौष्करसादि, कात्यायन आदि नाम वार्तिकों में भी निर्दिष्ट हुए हैं, शेष सभी नामों का निर्देश भाष्यकार ने किया है, इससे प्रमाणित होता है कि केवल भाष्य निर्दिष्ट नाम वाले व्यक्ति सूत्रकार तथा वार्तिककार के परवर्ती और भाष्यकार के पूर्ववर्ती होने चाहिए, सबसे अधिकबार भारद्वाजीय और सौनागों का स्मरण किया है, इससे अनुमान होता है कि पतञ्जलि के समय में इन दो आचार्यों की परम्परा का स्वतन्त्र व्याकरण पढ़ाई में चलता होगा, भारद्वाज का नाम निर्देश पाणिनि ने स्वयं किया है, इससे निश्चित है कि भार.. द्वाज का व्याकरण पहले से प्रचलित था, आचार्य सुनाग का नाम सूत्रों में तथा वार्तिकों में नहीं मिलता परन्तु पतंजलि ने बार बार अपने भाष्य में आचार्य सुनाग के अनुयायियों का उल्लेख किया है, इससे अनुमान होता है कि आचार्य सुनाग की कोई टीका होगी जिसके आधार से उसके अनुयायी अध्ययन करते होंगे । इसलिए भाष्यकार ने बार बार उनके पाठभेद का सूचन किया है, पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों पर व्या डि की टीका की तरह अनेक टीकायें होंगी ऐसा भाष्य के उल्लेखों से सूचित होता है, एक उल्लेख में तो आचार्य पतंजलि ने एक संग्रह का प्रशंसा पूर्वक उल्लेख किया है, वे कहते हैं-- "शोभना खलु दाक्षायणस्य संग्रहकृतिः' अर्थात् "दाक्षायण की संग्रह कृति सचमुच सुन्दर है।' महाभाष्य के सम्बन्ध में जितना भी लिखा जाय थोड़ा है, परन्तु इस समय विशेष लिखने की अनुकूलता नहीं, अन्त में आचार्य पतंजलि की अध्यापकों तथा छात्रों के लिए एक अमृतमयी शिक्षा को नीचे उद्धृत करके अवलोकन को पूरा करते हैं-- "सामृतैः पाणिभिनन्ति, गुरवो न विषोक्षितैः । लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः ॥१॥ (महा. अ. अ. पृ. २८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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