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व्याकरण विद्यमान हैं, उन सब में प्रस्तुत पाणिनीय व्याकरण सर्व से प्राचीन है, पातंजल-महाभाष्य बनने के पूर्व में इस व्याकरण पर आचार्य व्याड़ि निर्मित “संग्रह" नामक लक्षश्लोकात्मक टीका थी ऐसा "वाक्यपदीय" के टीकाकार पुण्यराज कहते हैं ।
आचार्यपाणिनि के बाद नन्दवंश के अन्तिम समय में होने वाले आचार्य कात्यायन ने पाणिनीय व्याकरण की कमियों को पूरा करने का भरसक प्रयत्न किया, हजारों वार्तिक बनाकर यथास्थान सम्बन्धित सूत्रों के साथ रख दिया, तथा पाणिनीय व्याकरण को समृद्ध बना दिया ।
शुंग राजा 'पुष्यमित्र' के समय में आचार्य पतंजलि मुनि एक बड़े भारी वैयाकरण हुए, उन्होंने व्याड़ि की संग्रह टीका का विपुल परिमाण देखकर सोचा आजकल के छात्रों के लिए इतनी विस्तृत टीका उपयोगी नहीं है और उन्होंने सवातिक पाणिनीय अष्टाध्यायी पर महाभाष्य बनाया और उसका पठन पाठन भी शुरू करवाया, परन्तु तत्काल में प्रत्येक संस्कृत विद्यालयों में व्याडि के अनुयायी विद्वानों का ही प्राबल्य था, उन्होने पातंजल महाभाष्य के सामने एक प्रचण्ड विरोध का बंवण्डर खड़ा किया, विरोध करने का खास कारण यह था कि व्याडि शब्द को द्रव्य वाचक मानते थे तब पतञ्जलि ने उसे जाति वाचक मान कर भाष्य में इस सिद्धान्त को दाखिल किया, परिणाम स्वरूप विरोधियों को इस आन्दोलन में सफलता मिली, महाभाष्य का पाठशालाओं में पठन पाठन बन्द हुआ, यह तो एक साधारण बात थी परन्तु महाभाष्य के दर्शन तक उस प्रदेश में दुर्लभ हो गए, कहते हैं कि महाभाष्य की एक पोथी किसी प्रकार दक्षिण प्रदेश में पहुंच चुकी थी और उसी के आधार पर दक्षिणा पथ में कालान्तर में महाभाष्य का पठन पाठन प्रचलित हुआ था, कुछ भी हो परन्तु एक बात निश्चित है कि पातञ्जल-महाभाष्य का प्रचार होने के बाद में व्याड़ि की संग्रह टीका सदा के लिए लुप्त हो गई होगी, ऐसा अनुमान होता है।
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