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कल्प-किरणावलीकार और कल्पकौमुदीकार विजयदेवसूरि गच्छ के अनुयायी थे, तब “प्रदीपिका” और “सुबोधिका' के निर्माता विद्वान् विजयानन्दसूरि गच्छ के अनुयायी थे, दो अन्तर्वाच्य जो प्राचीन हैं, उनके विषय निरूपण पर विचार करने से वे तपागच्छ के अनुयायी जान पड़ते हैं, पर्यषणा में पढ़ने योग्य कल्पसूत्र के विवरणों में खण्डन मण्डन की पद्धति उचित न होने पर भी इस पद्धति ने “सन्देह विषौषधी' के अनुकरण में अन्यान्य टीकाओं में भी अपना अड्डा जमा दिया है , “सन्देह विषौषधी' में गर्भापहार कल्याणक की हिमायत होने के बाद पिछली शायद ही कोई टीका रही होगी कि जिसमें महावीर के गर्भापहार को कल्याणक मानने का समर्थन और विरोध न हुआ हो, यह खण्डन मण्डन की पद्धति कल्याणक तक ही सीमित नहीं रही, आगे जाते जाते श्रावण भाद्रपद की वृद्धि में किस महीने में पर्युषणा करना, चतुर्थी तथा पंचमी के मुकाबिले में किस तिथि के दिन पर्युषणा करना चाहिए इत्यादि अनेक प्रश्नों को लेकर कल्प टीकाओं में खण्डन-मण्डन की पद्धति बढती ही गई, फिर भी मामला यहीं नहीं रुका, देवसूरि और आनंद सूरि के अनुयायियों ने गच्छनिमित्रक मनमुटाव के कारण अपनी अपनी टीकाओं को एक दूसरे की भूलें निकालने का साधन बना दिया, जो पद्धति पर्युषणा जैसे पर्व में अत्यन्त अनुचित है, पढने वाले श्रमणों को चाहिए कि कल्पसूत्र मूल का पढ़ना ही सूत्रों में विहित है, इसके विवरण-वृत्तियों को अक्षरशः पढ़ने से ही कल्प का व्याख्यान पूरा होता है, यह भ्रमणा मनमें से निकाल देना चाहिए
और विरोध को शान्त करने के पवित्र पर्व में खण्डन-मण्डन की बातों की चर्चा करके रागद्वेष को उत्तेजित नहीं करना चाहिए।
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