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उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभजी की प्रस्तुत टीका में व्याकरण सम्बन्धी, सिद्धान्त सम्बन्धी और साहित्यिक अनेक भूलें दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु उन सब की चर्चा करके लेख को बढाना उचित नहीं होगा, अब सिर्फ टीका की अन्तिम प्रशस्ति उद्धत करके अवलोकन पूरा करेंगे ।
"श्री मज्जिनादिकुशलः कुशलस्य कर्ता, गच्छे बृहत्खरतरे गुरुराड् बभूव । शिष्यश्च तस्य सकलागमतत्वदर्शी, श्री पाठकः कविवरो विनयप्रभोऽभूत् ॥१॥ विजयतिलकनामा, पाठकस्तस्य शिष्यो, भुवनविदितकीतिर्वाचकः क्षेमकीर्ति । प्रचुरविहितांशष्यः प्रसृता (स्तु) तस्य शाखा, सकलजात जाता क्षेमधारी ततोऽसौ ।।२।। पाठकौ च तपोरत्न-तेजराजौ ततो वरौ । भुवनादिमकीर्तिश्च, वाचको विशदप्रभः ॥३॥ सद्वाचकोऽभवदशेषगुणाम्बुराशिः हर्षाजि (द्धि) कुञ्जरगणिर्ग रुतान्वितश्च । श्री लब्धिमंडनगणिवरवाचकश्च,
सद्बोधसान्द्रहृदयः सहृदां वेरण्यः ॥४॥ लक्ष्मीकीर्तिः पाठकः पुण्यमूर्ति-स्वित्कीति रिभाग्योदयश्रीः । शिष्यो लक्ष्मीवल्लभस्तस्य रम्या, वृत्तिं चक्रे कल्पसूत्रस्य चेमाम्॥५॥"
उपर्युक्त प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपने समय का कुछ भी निर्देश नहीं किया, फिर भी आन्तर वर्णनों और अन्यान्य शब्द प्रयोगों से लगभग निश्चित हो जाता है कि श्री लक्ष्मीवल्लभ पाठक विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के व्यक्ति हैं।
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