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उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ कहते हैं-पार्श्वनाथ की माता वामारानी लोकों के आग्रह से कमठ को देखने के लिए जाने को तैयार हुई, पार्श्वकुमार भी माता के आग्रह से उनके साथ चले, कमठ पांच धुनियों के बीच बैठा हुआ है, पार्श्वनाथ ने देखा कि, कमठ की धूनि में जलते हुए काष्ट के भीतर सर्प युगल जल रहा है, आपने अपने सेवक से उस काष्ट को चीरवाकर भीतर से सर्प और सर्पिणी को निकलवाया और उन्हें "ॐ असि पाउसायनमः'' यह मन्त्र सुनाया, पार्श्वनाथ के दर्शन तथा मन्त्राक्षरों के श्रवण से शुभ परिणाम वाले सर्प और सर्पिणी नागकुमार देवों की योनि में उत्पन्न हुए, सर्प धरणेन्द्र हुआ और सर्पिणी उसकी स्त्री पद्मावती देवी हुई।
उपर्युक्त प्रसंग में पार्श्वनाथ अपनी माताजी के साथ कमठ के पास गये थे, ऐसा लक्ष्मीवल्लभजी ने लिखा है, परन्तु अन्य सभी चरित्रों में उनके अकेले जाने की बात आती है, जलते हुए काष्ठ में "सर्प युगल" होने सम्बन्धी वल्लभजी का कथन है, जो श्वेताम्बर जैन साहित्य के विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि श्वेताम्बर जैन-साहित्य में काष्ठ में अकेले सर्प के होने की बात मिलती है, सर्प-युगल होने की बात दिगम्बर जैन साहित्य में मिलती है, श्वेताम्बर साहित्य में नहीं, पद्मावती देवी धरणेन्द्र नागराज की स्त्री होने का लक्ष्मीवल्लभजी लिखते हैं, परन्तु यह बात भी श्वेताम्बर जैन साहित्य से विरुद्ध है, जैन श्वेताम्बरीय आगम साहित्य में धरणेन्द्र नागराज की जो अग्रमहिषियाँ बताई हैं, उनमें “पद्मावती' का नाम कहीं नहीं मिलता, जलते हुए सांप को नमस्कार मन्त्र पार्श्वनाथजी ने अपने सेवक द्वारा सुनाया था, ऐसा अन्यत्र आता है, तब प्रस्तुत टीका में वाचक लक्ष्मीवल्लभगणी पार्श्वनाथजी के मुख से परमेष्ठि मन्त्र सुनाने की बात कहते हैं, इत्यादि अनेक श्वेताम्बरीय परम्परा की मान्यता के विरुद्ध बातें लिखी गई हैं, जिनका आधार जैन साहित्य में उपलब्ध नहीं होता।
भगवान् ऋषभदेव को श्रेयांसकुमार ने ईक्षुरस से वार्षिक तप का पारणा करवाने के प्रसंग पर श्री लक्ष्मीवल्लभजी लिखते हैं
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