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________________ १६९ तीसरा द्वादश वार्षिक दुर्भिक्ष युगप्रधान स्कन्दिलाचार्य के समय में पड़ा था, जिससे साधुओं का पठन-पाठन-क्रम बन्द पड़ गया था और इधर उधर भ्रमण करते हुए श्रमण गण का पूर्व पठित श्रुत ज्ञान भी विस्मृत प्राय होगया था, दुष्काल के अन्त में तत्कालीन श्रतधर श्री स्कन्दिलाचार्य ने निकटवर्ती श्रमणों को मथुरा में इकट्ठा करके तमाम सूत्र तथा नियुक्ति आदि प्रागमों के व्याख्यांग लिखवा कर सिद्धान्त की रक्षा की। लगभग इसी समय के दान दक्षिण पश्चिम के श्रमण संघ के नेता श्री नागार्जन वाचक ने भी सौराष्ट्र की तत्कालीन राजधानी वलभी नगरी में श्रमण संघ को सम्मिलित कर नष्टावशेष तमाम आगमों को पंचांगी सहित लिखवाकर सुरक्षित किया था, मथुरा तथा वलभी के सम्मेलनों के बाद लगभग डेढ़ सौ वर्ष से अधिक समय व्यतीत होने पर उत्तरीय तथा दाक्षिणात्य श्रमण संघ जो क्रमश: माथुरी तथा वालभी वाचना के अनुयायी थे, बलभी नगर में सम्मिलित हुए और दोनों वाचनाओं के बीच जो-जो पाठान्तर तथा मतान्तर थे उनका समन्वय किया, इस संयुक्त श्रमण संध की सभा की कार्यवाही का अन्तिम वर्ष ६८० वां था, जिसका उपर्युक्त सूत्र में निर्देश किया गया है, काल गणना में दाक्षिणात्य तथा उत्तरीय श्रमण संबों के बीच में तेरह वर्षों का मतभेद था, माथुरी वाचना के अनुयायी उत्तरीय श्रमण संघ की गणना के अनुसार वह नव सौ अस्सीवां वर्ष था, तब दाक्षिणात्य श्रमण संघ जो नागार्जुनीय वाचना को महत्त्व देता था उसके मतानुसार वही निर्वाण का ६६३ वां वर्ष था, दोनों संघों के प्रधान नेता अपनी अपनी कालगणना को ठीक समझते थे, अतः उन दोनों मान्यताओं का अन्तिम सूत्र में उल्लेख करना पड़ा था, आगमों के पुस्तकारूढ होने सम्बन्धी वृत्तान्त को ठीक न समझने के कारण श्री लक्ष्मीवल्लभ उपाध्याय ने इस विषय में बहुत ही गोलमाल कर दिया है। इस लिए इस विषय में कुछ स्पष्टीकरण करना पड़ा। गृहस्थावस्था में पार्श्वनाथ कमठ नामक तापस के पास जाते हैं, यह बात उनके चरित्र में आया करती है, इसके सम्बन्ध में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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