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पठन पाठन मुख जंबानी होता था, पुस्तक लिखे जाने के बाद पुस्तक के आधार से पढने की रीति प्रचलित हुई, कोई आचार्य कहते हैं भगवान् के मोक्ष गमन के अनन्तर ६८० वं वर्ष में ध्रुवसेन राजा के पुत्र शोक निवारणार्थ सभा समक्ष कल्पसूत्र सुनाया गया, यहां इस विषय में गीतार्थ कहें, उसे प्रमाण मानना चाहिए, फिर ९६३ वें वर्ष में स्कन्दिलाचार्य ने दूसरे द्वादशवार्षिक दुर्भिक्ष के अन्त में मथुरापुरी में साधु सम्मेलन कर सिद्धान्त पुस्तकों पर लिखाये, इसी कारण से एक स्थाविरावली वलभीवाचना के अनुसार पढी जाती है, तब एक माथुरीबाचना के अनुसार ।
उपर्युक्त टीका के अंश में पाठक लक्ष्मीवल्लभजी के "प्रथम कवले मक्षिका पातः,” जैसा हुआ है, सूत्र में अस्सीवां वर्ष वर्तमान माना है, तब आपने "गतेषु" शब्द से अस्सीवाँ वर्ष भी गत माना है, इसका अर्थ होगा ६८१ वें वर्ष में पुस्तकों पर आगम लिखा गया जो मूल सूत्र के विरुद्ध पड़ेगा, आगे आपने बलभी का साधु सम्मेलन प्रथम द्वादशवार्षिक दुर्भिक्ष के अन्त में होना बताया है, जो निराधार है, प्रथम तो बलभी का यह सम्मेलन प्रथम नहीं परन्तु दूसरा था और यह सम्मेलन द्वादशवार्षिक दुर्भिक्ष के अन्त में हुआ था, इस कथन में भी कोई प्रमाण नहीं है, जैन शास्त्रों के आधार से महावीर निर्वाण के बाद तीन द्वादश वार्षिक दुर्भिक्षों का पता लगता है
पहला दुर्भिक्ष मौर्य राजा चन्द्रगुप्त के समय में पड़ा था, जिसके अन्त में पाटलीपुत्र में जैन श्रमण संघ ने इकट्ठा होकर आगमों की वाचना व्यवस्थित की थी और कुछ कालिक सूत्र लिखे भी थे और दृष्टिवाद का भद्रबाहु स्वामी के पास स्थूलभद्रादि मुनियों को भेज
कर अध्ययन करवाया था ।
दूसरा दुर्भिक्ष आर्य वज्रस्वामी के समय में पड़ा था जब कि अपने शिष्य वज्रसेन को दक्षिण भारत में विहार करवाकर स्वामी ने अपने ५०० शिष्य - प्रशिष्यादि के साथ रथावर्त पर्वत पर जाकर अनशन द्वारा स्वर्गवास प्राप्त किया था ।
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