________________
१८५
लक्ष्मीवल्लभ उपाध्याय ही निकले ।
भरत के पुत्र मरीचि जिसने भगवान् ऋषभदेव के हाथ से प्रव्रज्या ली थी और कुछ समय के बाद उसने त्रिदण्डी का वेष धारण किया था, उसके सम्बन्ध में लक्ष्मीवल्लभ लिखते हैं
“समवसरणस्य बहिरदेशे अनेन वेषेण तिष्ठति ॥"
अर्थात्-'त्रिदण्डी का वेष धारण करने के बाद मरीचि भगवान् ऋषभदेव के समवसरण के बाहर बैठते थे, भीतर नहीं, जहां तक हमें ज्ञात है, मरीचि के लिए समवसरण के बाहर बैठने का कोई नियम नहीं था।
भगवान् महावीर के पूर्वभवों में से सोलहवें भव का वर्णन करके लक्ष्मीवल्लभजी लिखते हैं--- ___“अथ सप्तदश भवे राजगृह नगयाँ चित्रनन्दी नृपः तस्य प्रियंगुर्नाम्नी राज्ञी, तस्य पुत्रो विशाखनन्दी वर्तते, नपस्य लघु भ्राता विशाखभूतिरम्ति, स युवराजाऽस्ति । तस्य स्त्री धारणी विद्यते तस्याः कुक्षौ मरीचिजीव आगत्य समुत्पन्नः पूर्णे समये पुत्रो जातः, तस्य नाम विश्वभूतिरिति दत्तम् । क्रमात् यौवनं प्राप्तः, पित्रापरिणायितः, स च विश्वभूतिः स्वनारीभिः साधं राजवाटिकायां क्रीडां करोति । एकदा चित्रनन्दी नाम्नो नृपस्य पुत्रेण विशाखनन्दी क्रीडन् दष्टः।।"
ऊपर के निरूपण में भगवान महावीर का विश्वभूति का भव सत्रहवां लिखा है, जबकि अन्य ग्रन्थों में सोलहवां भव माना है, राजगृह के राजा का नाम चित्रनन्दी बताया है, तब अन्यत्र “विश्वनन्दी” यह नाम मिलता है, अन्य सभी टीकाओं में विश्वभूति को वाटिका में से बाहर निकालने के बहाने से राजमन्त्री ने संग्राम का आडम्बर किया था यह बताया है तब इस टीकाकार ने विश्वभूति द्वारा सिंहराजा को जीतकर राजगृह के राजा को सुपुर्द करने की बात लिखी है, तथा प्रवजित विश्वभूति से भवान्तर में विशाख
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org