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________________ १८४ विनयप्रभ से पृथक् होती है, पाठक विनयप्रभ, पाठक विजयतिलक और पाठक क्षेमकीर्ति के अनेक शिष्य थे इससे क्षेमशाखा नामक खरतरगच्छ के साधुओं की एक शाखा निकली, इसी क्षेमशाखा में प्रस्तुत टीका निर्माता उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ हुए हैं, आपने अपना समय निर्दिष्ट नहीं किया, फिर भी विनयप्रभ से आपका बारहवां नम्बर आता है, विनयप्रभ पन्द्रहवीं सदी के प्रारम्भ के व्यक्ति हैं तो लक्ष्मीवल्लभ विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के व्यक्ति होने चाहिए, आपकी इस टीका में प्रयुक्त हुए अनेक शब्दप्रयोगों से भी आप अठारहवीं शती के ही लेखक ज्ञात होते हैं, आपने टीका में स्थानस्थान पर देश्यशब्दों का प्रयोग किया है, इससे भी प्रमाणित होता है कि लक्ष्मीवल्लभ अठारहवीं शती के पंजाबी विद्वान् थे । कल्प सूत्र जैसे महत्त्व के सूत्र पर लक्ष्मीवल्लभ जैसे सामान्य विद्वान् को टीका निर्माण करने का साहस करना ठीक नहीं था, आपने इस टीका में अनेक अक्षन्तव्य भूलें की हैं, जिनके शिकार इस टीका के सामान्य पाठक बनने का सम्भव है, थोड़ी सी इसकी भूलों के नमूने देकर इसका अवलोकन समाप्त कर देंगे । शय्यातर के सम्बन्ध में आप लिखते हैं " शय्यातरः - शय्यातरस्य उपाश्रयदायकस्य चाहारपानीयं न कल्पते, तत्र एक दिनं - इन्द्रः शय्यातरः, द्वितीये दिने देशाधिपः तृतीये दिने ग्रामाधिपः इति गीतार्था बदन्ति । " अर्थात् - 'प्रथम दिन इन्द्र, दूसरे दिन माण्डलिक राजा और तीसरे दिन ग्राम स्वामी को शय्यातर बताने वाले आपके गीतार्थों में से किसी एक का नाम लिख दिया होता तो बहुत अच्छा होता । विहारभूमि का अर्थ लिखते हुए आप कहते हैं " यस्मिन् ग्रामे विहार-भूमिः - प्रासु कस्थडिलभूमिः भवति यतो जन्तूनां विराधना स्तोका भवति ।" विचार भूमि को स्थंडिल भूमि लिखने वाले तो अनेक लेखक हो गये, परन्तु "विहार भूमि" को "स्थडिल भूमि" कहने वाले श्री For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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