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"श्री कल्पसिद्धान्त तणी वाचना तणइ अधिकारइ कइएक भाग्यवन्त दान दियइ, शील पालइ, तप तपई, भावना भावई एवं विधिधर्म कर्तव्य करइ ते श्री देवगुरु तणउ प्रसाद देवनइ अधिकारइ विधिचैत्यालय पूज्यमान श्री पार्श्वनाथ तणइ प्रसादि, गुरु नइ अधिकारि युग प्रधान श्री जिनदत्त सूरि परंपरायइ श्री जिनकुशलसूरि तदनुक्रमइ श्री जिनभद्रसूरि तत्पट्टपरंरायइ युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि, श्री जिनसिंह सूरि तत्पट्टपूर्वाचल सहस्त्रकरावनार युगप्रधान श्री जिनराज सूरि तणी आज्ञा वहमान श्री चतुर्विध संघ आचन्द्रार्क जयवंत प्रवर्तइ इति द्वितीया व्याख्यान पद्धतिः ॥"
उपर्युक्त व्याख्यान पद्धति युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजी से तृतीय स्थान वर्तिश्री जिनराज सूरि के समय में संकलित की गई है, लेखक ने संकलन समय नहीं लिखा, फिर भी श्री जिनराजसूरिजी का सत्ता समय विक्रम की १७वीं शताब्दी का अंतिम भाग होने से यह पद्धति भी १७वीं शती के अन्त में निर्मित हुई है, इस पद्धति का यहां परिचय देने के दो कारण हैं, पहला तो यह कि खरतरगच्छ के विद्वान् कल्पसूत्र का व्याख्यान किस ढंग से करते हैं यह सूचित करने के लिए, दूसरा कारण यह कि पर्युषणा के व्याख्यानों में भी महावीर के षट् कल्याणक मानने का तथा अपने आचार्यों का पारतंत्र्य किस हद तक इस गच्छ वालों के हृदय में गहरा उतरा हुआ है, विधि
चैत्य तथा छः कल्याणकों की चर्चा कभी थी, पर वह समय आज नहीं है, फिर भी इस गच्छ के अनुयायियों के लिए पहले गच्छ है और पीछे संघ, यह स्थिति आगे खींचतान कर कहां तक ले जायेंगे इसका तो पता नहीं परन्तु इतना तो प्रकट है कि समय इस भावना के प्रतिकूल है, इसमें कोई शंका नहीं।
११ कल्प-द्रुम-कलिकाइस टीका के कर्ता खरतर गच्छ के उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ हैं, आपकी उपाध्याय परम्परा श्री जिनकुशलसूरिजी के शिष्य पाठक
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