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१७६ था और हीरसूरिका साँकेतिक नाम “प्रौढकर्म" बना लिया था और सागरों के आपसी व्यवहार में इसी नाम का व्यवहार हुआ करता था, कौमुदी टीका में इसके लेखक ने उपाध्याय विनयविजयजी के लिए "प्रोढ कर्म पौत्र' शब्द का प्रयोग किया है, सागर परम्परा के भी जो साधु इनकी पार्टी में सम्मिलित नहीं थे उनके लिए उन्होंने कुछ सांकेतिक नाम रख छोड़े थे उनमें से एक नाम टीकाकार ने नीचे मुजब उल्लिखित किया है
"अत्र यत् सागरप्रपौत्रेण दुराराध्यो दुष्प्रतिपाल्यश्चेति प्रयोगो चिन्तितौ० इति व्युत्पत्त्यन्तरानभिज्ञतासूचकमवसेयं" ॥
विनयविजयजी को व्याकरण ज्ञानशून्य और सागर प्रपौत्र को व्युत्पत्यनभिज्ञ कहने वाले शान्तिसागरजी व्याकरण तथा व्युत्पत्ति के जानकार थे या उसके ज्ञान से शून्य इसका निर्णय करना पाठकों पर ही छोड़ देते हैं । उनके “शिष्यगी" "सहस्राः" इत्यादि अलाक्षणिक अनेक शब्द प्रयोगों से उनका व्याकरणज्ञान बिल्कुल कच्चा था और गणी, आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, गणधर आदि का जो पारिभाषिक अर्थ लिखा है, उससे तथा “गण" और "शाखा" के अर्थों की जो कल्पना की है, इससे तो हमारे मन पर यही असर पड़ा कि "कौमुदी के लेखक'' उ.० शान्तिसागरजी महाराज जैन सिद्धान्त के ज्ञान से कोशों दूर थे, अन्यथा ऐसा ऊटपटांग अर्थ कभी नहीं लिखते अस्तु ।
अब हम सागरों की परम्परा के सम्बन्ध में दो शब्द लिखकर यह वक्तव्य पूरा करेंगे , कल्पकौमुदी के लेखक ने ग्रन्थ के अन्त में अपनी परम्परा-सूचक प्रशस्ति दी है, जिसमें लिखा है कि विजयसेन सूरिजी की मौजूदगी में उनके पाट पर भट्टारक राजसागर गुरु सुशोभित हैं, राजसागर के पट्ट पर गणनायक वृद्धिसागरसूरि की यौवराज्यावस्था में गहन शास्त्रों के निर्माण में निपुण, जिन पर रोषवश आरोप लगाया गया था-उत्सूत्र रूपी पृथ्वी को फाड़ने के लिए हल के समान, अच्छे सुसंविग्न, उद्धतप्रतिवादियों को दमन
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