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करने के लिए स्थायी प्रतिज्ञावान् ऐसे शुभ गुरु श्रेष्ठ धर्मसागरजी हुए, गुरु धर्मसागरजी के शिष्य श्री श्रुतसागरजो उपाध्याय पद से सुशोभित और यश के समुद्र हुए, श्रुतसागर वाचक के शिष्य शान्ति सागर कि जिनके सामने बृहस्पति एक छोटा बालक सा प्रतीत होता है, स्याद्वाद रूपी समुद्र में चन्द्रतुल्य हैं, जिनकी शक्ति से शम्भु भी पराजित हुए, उत्तम बुद्धिवाले, मिथ्यात्वरूपी अन्धकार को दूर करने में सूर्यसदृश ऐसे वाचकवर्य अग्रेश्वर श्री शान्तिसागरजी ने कल्पकौमुदी को पाटन में वि० सं० १७०७ में रचा।।
शान्तिसागरजी की उपर्युक्त प्रशस्ति से यह प्रमाणित होता है कि विजयसेनसूरिजी के बाद ही सागरों ने अपनी प्राचार्य परम्परा स्थापित करदी थी, उस परम्परा में तीसरे पुरुष धर्मसागरजी होने का लिखा है परन्तु इसमें खटकने वाली बात यह है कि राजसागर और वृद्धिसागरसूरि का वर्णन प्रशस्ति में वर्तमान कालीन क्रिया पदों से किया है, जब कि धर्मसागरजी तथा अपने गुरु श्रुतसागरजी को भूतकालीन बताया है, इससे लेखक के लेख की कृत्रिमता का भण्डाफोड़ होता है और धर्मसागर के बाद तीन पुरुषों के वर्णन से भी सागरों की अहंता का बोध होता है।
११-कल्प-व्याख्यान-पद्धतियह व्याख्यान पद्धति खरतरगच्छीय वाचक श्री हर्षसार शिष्य श्री शिवनिधान गणी द्वारा संकलित की गई है, जो निम्नलिखित श्लोकों से ज्ञात होता है
"श्री हर्षसार वाचक-शिष्य श्री शिवनिधानगणिनेदम् । संकलितं श्री कल्पे, व्याख्यानं बालबोधाय ॥१॥
इस व्याख्यान पद्धति में सारा कल्पसूत्र नहीं है, किन्तु प्रारम्भिक दो व्याख्यान दिए हुए हैं, इस पद्धति का उद्देश मात्र कल्प का व्याख्यान पढने वाले साधु को व्याख्यान किस प्रकार से प्रारम्भ करना चाहिए और किस प्रकार समाप्ति, यह दिखाने का है ।
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