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कौमुदी में स्थान स्थान पर कल्पसुबोधिकाकार " उपाध्याय श्री विनयविजयजी" पर कुरुचिपूर्ण आक्षेप किये गए हैं, उपाव्यायजी ने सुबोधका में कहीं-कहीं धर्मसागरजी की "कल्प किरणावली" गत भूलें दिखाई हैं, उन भूलों को निर्दोष प्रयोग बताने के लिए ही मानो शान्तिसागरजी ने इस टीका का निर्माण किया है, उपाध्याय विनय विजयजी एक अच्छी कोटि के वैयाकरण होने के उपरान्त जैन सिद्धान्त के भी विद्वान् थे, और "कल्पकिरणावली" में बताई हुई व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियां वस्तुतः खरी अशुद्धियां हैं, फिर भी सागरजी के इस प्रशिष्य ने अपने दादा गुरु का महत्त्व बनाये रखने के लिए इस टीका में भूलों पर लीपा पोती की है, अस्तु, दूसरों को भला बुरा कहने वाले मनुष्य अपनी योग्यता अयोग्यता को किस प्रकार भूल जाते हैं इस बात को समझने के लिये "कौमुदी" एक खास उपयोगी साधन है, शान्तिसागरजी विनयविजयजी द्वारा उद्घाटित धर्मसागरजी की भूलों को पढ़कर आग बबूला हो गए हैं और प्रसंग पर विनयविजयजी को "अज्ञ" 'व्याकरण ज्ञानशून्य' आदि अनेक उपाधियां दे डाली हैं, उनका यह क्रोध विनयविजयजी उपाध्याय तक ही सीमित नहीं रहा, किन्तु विनयविजयजी के प्रगुरु ं आचार्य श्री विजयहीरसूरि तक पहुंच गया है और उन्हें "प्रोढ - कर्मा" तक कह डाला है, यह उनकी योग्यता का सूचक है, इस विषय का कौमुदीकार सागरजी का मूल उल्लेख यह है
"यच्च प्रौढकर्मपौत्रेण किरणावलिकृतोऽधिकृत्याष्टचत्वारिंशद्विद्य त्याद्युक्तं तत्तस्याभिनिवेशिता सूचकमेव" ।
उ० विनयविजयजी उ० कीर्तिविजयजी के शिष्य थे और कीर्ति - विजयजी आचार्य श्री विजयहीरसूरि के, इस प्रकार विनयविजयजी को हीरसूरि का प्रशिष्य होने के नाते हीरसूरिजी का पौत्र माना गया, हीरसूरिका नाम न लिखकर उन्हें "प्रौढकर्म" इस विशेषण से उल्लिखित किया है, "प्रौढकर्म" का अर्थ होता है “भारी कर्मीजीव" आ० हीरसूरिजी ने धर्मसागरजी को गच्छ बाहर किया था, इस कारण से धर्मसागरजी के शिष्य-प्रशिष्यादि परिवार उन पर जलता
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