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शिष्यादिगणनया नवमस्थान भाविनो नाम्नाचार्यरक्षाः इत्येवमनयोः श्रर्यरक्षितार्यरतयोः स्फुटं भेदं विस्मृत्य आर्यरक्षस्थाने आर्यरक्षितव्यतिकरं लिखितवान् ||"
प्रारम्भ में हम कह आये हैं कि उपाध्यायजी महाराज का स्वभाव लड़ाका जान पड़ता है, हमारे उस कथन की सत्यता पाठक गण उपर्युक्त फिकरा पढ़कर समझ सकते हैं, जो बात उपाध्यायजी के पूर्ववर्ती लेखक कह आए हों उसी बातको बढा चढ़ाकर प्रचारित करना यही तो लड़ाके मनुष्य की प्रकृति का परिचायक है, हमारी समझ में उपर्युक्त "आर्य रक्ष" और "आर्य रक्षित" वाली बात को उपाध्यायजी न छेड़ते तो आपकी विद्वत्ता को कोई क्षति नहीं पहुंचती ।
सुबोधका के अन्त में उपाध्यायजी ने अठारह बड़े पद्यों में एक प्रशस्ति दी है, जिसमें अपने आचार्यों, गुरुओं और सहायकों को याद किया है, उपाध्यायजी स्वयं श्री विजयानन्दमूरि की परम्परा में थे और विजयानन्दसूरि की विद्यमानता में ही संवत् १६९६ में सुबोधिका का निर्माण किया था और इसका संशोधन भी उपाध्याय श्री भावविजयजी ने किया है ऐसा आपने प्रशस्ति के एक पद्य में सूचित किया है ।
१० - श्री कल्प-कौमुदी टीका — ले० उपाध्याय शान्ति सागरजी ।
यह टीका प्रसिद्ध तपागच्छीय उपाध्याय धर्मसागरजी के प्रशिष्य उपाध्याय शान्तिसागरजी की कृति है । यह ग्रन्थ विक्रम संवत् १९६२ ( ई० १९३६ ) में रतलाम की ऋषभदेवजी केसरीमली की पेढ़ी से प्रकाशित हुआ है, इसके सम्पादक आचार्य श्री सागरानन्दसूरिजी हैं ।
"कल्प- कौमुदी" का श्लोक प्रमाण ३७०७ है, लेखक ने यथाशक्य सूत्र का शब्दार्थ देने में परिश्रम किया है, यह तो अच्छा ही है, परन्तु जहां तहां गाथाओं तथा संस्कृत पद्यों में दी हुई बातों का भी वर्णन पद्यों का अंग भंग करके संस्कृत वाक्यों में देने है, यह अच्छा नहीं किया, ऐसा करने के बजाय खास लेकर शेष छोड़ दिये जाते तो बुरा नहीं था ।
की चेष्टा की
आकर्षक पद्य
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