SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ स्थानांग सूत्र में सात निन्हवों के, उनके धर्माचार्यों के, तथा जो जिस नगर में निन्हव हुआ है उन नगरों के नाम दिये हुए हैं, इसी प्रकार अन्य सूत्रों में भी जहां जहां निन्हवों का उल्लेख आता है, वहां उनके नाम मात्र मिलते हैं, उनकी उत्पत्ति का समय व्याख्याकारों ने लिखा है, रोहगुप्त को महागिरि का शिष्य मान लेने पर उसका समय वीर निर्वाण की तीसरी शती में पड़ता है, तब भाष्यकार आदि ने निन्हवों का जो समय दिया है, उसमें रोहगुप्त का समय निर्वाण की छुट्टी शती में आता है, जो आर्य महागिरि के समय के साथ मेल नहीं खाता, इस कारण से रोहगुप्त के गुरु को श्री गुप्त मानकर उक्त विरोधापत्ति को मिटा दिया है, जहां तक निन्हवों के समय निरूपण का सम्बन्ध है, निरूपण करने वाले प्राथमिक लेखक की असावधानी के भोग बने हैं । उपाध्यायजी ने नागेन्द्र १, चन्द्र २, निर्वृति ३, विद्याधर ४ के दीक्षा लेने पर उनके नाम से चार शाखा प्रवृत्त होना लिखा है, जो ठीक नहीं, किसी भी आचार्य के नाम से उनके पीछे जो शिष्यपरम्परा चलती है वह मूल आचार्य का " कुल" कहलाता है, शाखा नहीं, शाखा बहुधा नगरों के नाम से अथवा स्थान के नाम से प्रसिद्ध होती हैं, जैसे ताम्रलिप्तिका, पुण्ड्रवर्धनिका, सौराष्ट्रका, मैथिलीया, क्षौमिलीया इत्यादि । "किरणावली" कार ने स्थविर आर्यरक्ष के नाम के साथ आर्य रक्षित का वृत्तान्त जोड़ दिया है, इस भूल को बताते हुए दीपिकाकार पं. जयविजयजी ने बड़ी सौम्य भाषा में थोड़े शब्दों में लिखकर मामले को खत्म किया है तब उपाध्याय विनयविजयजी महाराज उसी बात को बड़े जोश खरोश के साथ प्रकट करते हैं, जो नीचे उद्धृत किया जाता है 'थेरे अज्जरक्खेतिः -- अहो बत किरणावलीकारस्य बहुश्रुत प्रसिद्धिभाजोऽपि श्रनाभोगविलसितं यतो येऽमी श्रीतोसलिपुत्राचार्य शिष्याः श्रीवजस्वामिपार्श्वेऽधीत साधिकनवपूर्वा नाम्ना च श्री आर्यरक्षितास्ते भिन्नाः एते च श्रीवज्रस्वामिभ्यः शिष्यप्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy