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________________ १७५ उपाध्यायजी ने स्थविरावली गत "कुल" और "गण" शब्दों की व्याख्या करते हुए एक प्राचीन गाथा दी है, जो नीचे लिखी जाती है "तत्थ कुलं विन्नेयं, एगायरिस्स संतई जाउ । दुण्ह कुलाण मिहो पुण, साविक्खाणं गणो होइ ॥१॥" यह गाथा लगभग प्रत्येक टीकाकार ने अपनी अपनी टीका के इस स्थल में दी है, जिसका तात्पर्यार्थ यह है कि एक आचार्य की शिष्य परम्परा का नाम “कुल'' हैं और एक दूसरे के साथ साम्भौगिक व्यवहार रखने वाले दो कुलों का नाम है "गण," यह गाथा किसी सूत्र के भाष्य की मालूम होती है, किस भाष्य की है यह अब तक ज्ञात नहीं हुआ, परन्तु इसके तृतीय चरण में एक अशुद्धि घुस गई है, जिसका किसी भी पुस्तक के सम्पादक को पता नहीं लगा। जहां तक स्मरण है, इसके तृतीय चरण का प्रथम शब्द “दुण्ह' नहीं पर "तिण्ह". है । सूरत में प्रकाशित होने वाली सुबोधिका में "तिण्ह' छपा हुआ है, परन्तु सुबोधिका का अन्तिम संस्करण जो बम्बई से निकला है, उसमें "तिण्ह" के स्थान में “दुण्ह" शब्द रखकर शुद्ध स्थल को सम्पादकों ने अशुद्ध बना दिया है, यह अशुद्धि सम्भवतः "कल्पकिरणावली" प्रकाशित होने के बाद की सभी मुद्रित कल्पटीकाओं में घुस गई है, जो अवश्य सुधारने योग्य है, क्योंकि शास्त्र में कम से कम तीन कुलों का “गण' माना है, दो का नहीं, कल्पस्थविरावली में जिस जिस गण के कुलों का उल्लेख हुआ है, वे तीन या उससे अधिक हैं पर दो नहीं। रोहगुप्त के सम्बन्ध में लिखते हुए उपाध्यायजी महाराज कहते हैं-'सूत्र में रोहगुप्त को आर्य महागिरिजी का शिष्य कहा है, परन्तु उत्तराध्ययन वृत्ति, स्थानांग वृत्ति आदि में रोहगुप्त को श्री गुप्ताचार्य का शिष्य लिखा है, इसका यथार्थ तत्त्व तो बहुश्रुत ही जानते उपाध्यायजी महाराज को टीकाओं तथा पिछले प्रकरण ग्रन्थों की अपेक्षा से कल्पसूत्र मूल का अधिक विश्वास रखना चाहिये था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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