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कहीं कहीं आपने किरणावली, दीपिकाकार के नाम से दोनों की सम्मिलित भूलें बताई हैं, परन्तु ऐसी कतिपय भूलें किरणावली में अवश्य देखी गई, परन्तु दीपिका में नहीं, उदाहरण के रूप में स्वप्न पाठकों ने आकर राजा सिद्धार्थ को कुछ आशीर्वाद के पद्य सुनाए हैं, उनमें एक पद्य में “कोटिम्भर' शब्द का अवश्य प्रयोग हुआ है, जो किरणावली में मिलता है, परन्तु उपाध्यायजी सुबोधिका में लिखते हैं
'अत्र किरणावलि-दीपिकाकारभ्यां "कोटि भरस्त्वं भवे" ति पाठो लिखित स्तत्र कोटिं भर इति प्रयोगाश्चिन्त्यः ॥"
इस लेख में उपाध्यायजी ने किरणावलीकार के साथ दीपिकाकार को भी याद किया है, परन्तु दीपिका में "कोटि भर" शब्द वाला पद्य नहीं है, फिर उपाध्यायजी महाराज ने दीपिकाकार को कैसे याद किया है, यह समझ में नहीं आता।
"भण्डी-रमण-यात्रा" के स्थान पर उपाध्यायजी महाराज ने भी “भण्डीर-वन-यक्ष-यात्रा' लिखकर अपने पुरोगामी टीकाकारों का अनुसरण किया है, जो शास्त्रोत्तीर्ण है। भगवान् महावीर के अभिग्रह के सम्बन्ध में आप लिखते हैं।
"स्वामी अभिग्रहे रोदमं न्यूनं निरीक्ष्य निवत्तः" अर्थात्- 'अभिग्रह पूरा होने में रुदन की न्यूनता देखकर भगवान् वापस लौटे, यह कथन प्राचीन ग्रन्थों से विरुद्ध है, प्राचीन वृत्तान्तों में रोने की बात नहीं है, दीपिकाकार ने भी रोने की न्यूनता देखकर भगवान् को लौटने की बात नहीं लिखी, उपाध्यायजी ने किसी अर्वाचीन लेखक का अनुकरण किया मालूम होता है।
पुस्तक वाचना के सम्बन्ध में उपाध्यायजी की मान्यता है, कि ६८० में कल्पसूत्र लिखा गया है, और ६६३ में सभा समक्ष बाँचा गया, इस मान्यता को उपाध्यायजी ने श्री मुनि सुन्दरजी कृत एक स्तोत्र की गाथा के आधार पर निश्चित किया है, परन्तु उपाध्यायजी को यह ज्ञात हो गया होता कि ध्रुवसेन राजा तो ६६३ के बाद हुआ है तो उक्त मान्यता कभी निश्चित नहीं करते ।
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