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________________ १७३ ८-कल्पप्रदीपिका—कर्ता श्री संघविजयजी । प्रदीपिकाकार श्री संघविजयजी ने अपनी कल्पप्रदीपिका वि० सं० १६७६ में आचार्य विजयतिलक सूरि के आचार्यत्वकाल में समाप्त की थी, तब उसके बाद सं० १६७७ में बनने वाली "कल्पदीपिका' आचार्य विजय आनन्द सूरि के आचार्यत्व काल में समाप्त हुई, इससे जाना जाता है कि आचार्य विजय तिलक सूरिजी अधिक जीवित नहीं रहे, क्योंकि विजय सेन सूरिजी सं० १६७१ की साल में स्वर्गवासी हुए थे और उसके बाद आठ उपाध्यायों ने तिलक सूरि को आचार्य बनाया था, सतहत्तर की साल में विजयानन्द सूरि को विजयतिलकसूरि का पट्टधर होना, दीपिकाकार जय विजयजी ने सूचित किया है, इससे यह बात निश्चित है कि विजयतिलक सूरि तीन वर्ष के उपरान्त जीवित नहीं रहे । ह-श्री कल्पसुबोधिका-टीका-विनयविजयोपाध्याय कृत । उपाध्याय विनयविजयजी की कल्पसुबोधिका टीका आज तक की मुद्रित अमुद्रित सभी कल्प-टीकाओं में सबसे विस्तृत है, अन्य कल्पवृत्तियों ने कल्पान्तर्वाच्यों में से बढते बढते टीकाओं का रूप ग्रहण किया है, उपाध्याय विनय विजयजी ने पूर्व तन वृत्तियों का संक्षेप और अपने समय के श्रमणों का भाषा ज्ञान परख कर हरएक श्रमण पढ सके इस प्रकार की सुबोधिका टीका निर्मित की है और इसी कारण से आज तक पर्युषणा में प्रायः हर एक तपागच्छ का साधु सुबोधिका के आधार से पर्युषणा कल्प की वाचना करता है। उपाध्याय श्री विनयविजयजी का स्वभाव लड़ाका होगा ऐसा सुबोधिका के अन्दर आने वाले खण्डन मण्डनों से मालूम होता है, कल्प की वाचना के प्रारम्भ में ही षट् कल्याणक वादी और आगे जाकर कल्प-किरणावलीकार, दीपिकाकार आदि की खबर ली है, परन्तु उपाध्यायजी ने अपनी तरफ का पुरुषार्थ तो कम ही किया होगा, क्योंकि इनके पूर्वगामी दीपिकाकार पं० जय विजयजी गणी की बताई हुई भूलों का ही आपने जोरों के साथ प्रचार किया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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