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________________ १७२ थे और वज्रस्वामी के शिष्य-प्रशिष्यादि की गणना से नवमस्थान में आते थे और नाम से भी आर्यरक्ष थे, इस प्रकार इन दो में स्पष्ट रूप से भेद था ।' पर्युषणा - कल्प की सामाचारी में श्रावण तथा भाद्रपद की वृद्धि में पर्युषणा कब करना चाहिये इस प्रश्न की चर्चा में पं० जयविजयजी बहुत ही खूबी के साथ श्रावण की वृद्धि में भाद्रपद शुक्ला ४ र भाद्रपद की वृद्धि में द्वितीय भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी के दिन पर्युषणा करने का प्रतिपादन किया है । आचारोक्त २१ प्रकार के जलों के वर्णन में नवम " शुद्ध - विकट " और "उष्ण - विकट" शब्दों का अर्थ करते हुए आप "शुद्ध विकट " का अर्थ उष्णोदक करते हैं और कहते हैं कि क्वचित् "शुद्ध विकट" शब्द से वर्णान्तर प्राप्त जल ऐसा व्याख्यान भी किया जाता है, ' वह विचारणीय है क्योंकि कल्पचूर्णि आदि तथा स्थानांगवृत्ति यादि में "शुद्ध विकट" शब्द का अर्थ "उष्णोदक" इतना हो किया है, "उष्ण-विकट" शब्द से भी "उष्ण जल" को ही ग्रहण किया है और लिखा है कि वह उष्ण विकट असिक्थ ( जिसमें नाज का दाना न गिरा हो ऐसा ) होना चाहिए । "गणी" और " गणधर " शब्दों के अर्थ जिनप्रभसूरि के अर्थों में किये हैं । दीपिका के अन्त में पन्यास जयविजयजी ने नव पद्यों में एक बड़ी प्रशस्ति दी है, जिसमें प्राचार्य श्री विजयहीरसूरि विजयसेनसूरि, विजयतिलकसूरि और विजय आनन्दसूरि की प्रशंसा की है और अपनी इस कृति को पण्डितवर भावविजयजी गणी द्वारा संशोधित होने की सूचना की है, आपने यह वृत्ति प्राचार्य श्री विजयानन्दसूरि की विद्यमानता में विक्रम सं० १६७७ के कार्तिक सुदी सप्तमी को समाप्त की है । जय विजयजी उपाध्याय श्रीविमलहर्षजी के शिष्य थे, यह वात भी आपने प्रशस्ति में प्रकट की हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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