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________________ १७० उपर्युक्त श्लोक के कथनानुसार “भार" माना है, जो विचारणीय है, क्योंकि इस प्रकार के भार का वजन अठहत्तर मण से भी अधिक होता है और आधे भार का वजन उनचालीस मण परिमित होता है, इतना उन्मान पुरुष शरीर का कैसे हो सकता है यह विचारने योग्य होता है। पं० जयविजयजी ने भी "भण्डी-रमण-यात्रा" के स्थान "भण्डीर-मित्र-यक्ष-यात्रा' लिखकर पूर्व परिचित भूल का अनुगमन किया है। भगवान् महावीर के अंतिम रात्रि की देशना के निरूपक सूत्र की व्याख्या में पं० जयविजयजी ने भी जिनप्रभसूरि का अनुगमन किया है, जो अनागमिक है । महावीर निर्वाण के बाद कालसूचक जो सूत्र कल्प में दिया गया है, उस पर भी आपने ऊहापोह किया है, एक कल्पान्तर्वाच्य के कथनानुसार वीर निर्वाण से ६८० में कल्पसूत्र की सभा-समक्ष वाचना होने की बात लिखकर आप कहते हैं-यह बात भी है विचारणीय, क्योंकि अन्यत्र ६६३ में सभा-समक्ष कल्प की वाचना होने की बात देखी जाती है, यह लिखकर आप मुनिसुन्दर सूरि के स्तोत्र का वह पद्य लिखते हैं जिसमें ६६३ में आनन्दपुर में सभा के समक्ष कल्प की वाचना होने की बात कही है, अन्त में इस समस्या का निर्णय आप बहुश्रुतों पर छोड़ते हैं और ६६३ में पर्युषणापर्व पंचमी से चतुर्थी में प्रवृत्त हुआ, इस बात को प्रमाणित करने के लिए "सन्देह-विषौषधिकार" की "तेणउअ नवसएहि" इत्यादि गाथा लिखकर ६९३ में चतुर्थी में पर्युषणा प्रवृत्त होने का समर्थन किया है और कल्पकिरणावलिकार की पर्युषणा ६६३ में करने की बात का खण्डन किया था, उसका पं० जयविजयजी ने खण्डन किया है, और लिखा है कि "सन्देह-विषौषधिकार के व्याख्यान को दूषित ठहराना योग्य नहीं है । ” ऋषभ चरित्र के अधिकार में धरणेन्द्र द्वारा नमि विनमि को ४८ विद्या देने का किरणावलीकार ने लिखा है इसके सम्बन्ध में दीपिकाकार लिखते हैं, यह कथन विचारणीय है, क्योंकि ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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