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आप लिखते हैं-मैं अपने बोध को बढाने के लिये सुगम कल्पदीपिका को बनाता हूँ। कर्ता ने वास्तव में ग्रन्थ बनाने का खरा उद्देश्य प्रकट किया है, अनेक ग्रन्थकार ग्रन्थ निर्माण का हेतु परहित परोपकार आदि बताकर अपने आपको परोपकारियों की कोटि में पहुंचाते हैं वैसा जयविजयजी ने नहीं किया, इनके पहले कई विद्वानों ने कल्प पर अन्तर्वाच्य तथा टीका, वृत्तियां लिखी हैं, परन्तु हमारी दृष्टि में उन सब वृत्तियों से पं० जयविजयजी की यह "कल्पदीपिका" जिस ढंग से तुले नपे शब्दों में लिखी गई है वैसी आज तक कोई कल्पवृत्ति नहीं बनी, आपने दीपिका को ३४३२ श्लोकों में पूरा किया हैं, फिर भी इसमें आने वाले चर्चा के प्रसंगों को चर्चा किये बिना नहीं छोडा और खण्डन भी आपने बड़ी सतर्कता से मृदु भाषा में किया है, जिसे पढकर पाठक का चित्त प्रसन्न हो जाता है, दृष्टांत के तौर पर पट् कल्याणक को बात को ही लोजिये, कल्पकिरणावली तथा सुबोधिकाकार में षट्कल्याणकों के सम्बन्ध में इस ढंग से चर्चा की है, कि पढने वाला खुद उसे पढ़कर ऊब जाता है ।
दीपिकाकार ने षट्कल्याणक के सम्बन्ध में निम्न प्रकार के शब्द लिखे हैं___"अत्र पंचस स्थानेषु इत्येव व्याख्यातं न पुनः कल्याणकेविति स्वयमेवाऽलोच्यम्" ॥ ___ इसी स्थल पर अन्य वृत्तिकारों ने कटुता-जनक शब्दों में मंगल के प्रसंग में वैमनस्य उत्पन्न करने वाला शास्त्रार्थ किया है, जो उचित नहीं है।
दीपिकाकार ने उपाध्याय धर्मसागरजी की भी गलतियां निकाली हैं, परन्तु नपे तुले कोमल शब्दों द्वाराकिरणावलिकार ने “भार'' शब्द की परिभाषा लिखते हुए"मणेर्दशभिरेका च, घटिका कथिता बुधैः । टिभिः दशभिस्ताभिरेको भारः प्रकीर्तितः" ।।
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