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"पाद प्रोञ्छन " का अर्थ संदेह विषौषधिकार और किरणावलीकार ने "रजोहरण" किया है, उस प्रकार प्रदीपिकाकार ने भी पाद प्रोञ्छन का अर्थ "रजोहरण" ही किया है । जो ठीक नहीं है, " पाद प्रोञ्छन" एक हाथ भर से कुछ अधिक ऊनी वस्त्र खंड होता था, जो रजोहरण के ऊपर तीसरी "निषद्या" के रूप में रहता था, बैठने का प्रसंग आने पर उस पर बैठा भी जाता था, और उससे पग भी पोंछे जाते थे, आजकल उसी प्रकार की निषद्या के स्थान में छोटा सा ऊनी वस्त्र का टुकड़ा बांधा जाता है, जो “निशीथीया" इस नाम से पहिचाना जाता है, रजोहरण का नाम अगर पाद प्रोञ्छन होता तो साधु वसति के बाहर कार्यवश जाते समय दूसरे श्रमण को अपने उपकरण भलाने के समय रजोहरण को क्यों भलाता ? क्योंकि प्रत्येक साधु के पास रजोहरण तो एक ही रहता है और वह मकान में अगर भ्रमण में हर समय साधु के पास ही रहता है, इस बात पर अगर टीकाकार विचार करते तो "पादप्रोञ्छन" को वे "रजोहरण" कभी नहीं लिखते ।
प्रदीपिकाकार श्री पन्यास संघविजयजी ने अपनी टीका के अन्तमें एक प्रशस्ति दी है, जिसमें अपने आचार्यों का परिचय देने के अतिरिक्त ग्रन्थ निर्माण का समय, ग्रन्थ संशोधक का नाम, समय और ग्रन्थ का श्लोकपरिमाण दिया है, ग्रन्थ ठीक ढंग से संशोधित होकर छपा होता तो सभा में पढने योग्य होता, परन्तु इसका मुद्रण बिल्कुल व्यवस्थित अशुद्ध और अनजानों के द्वारा हुआ है, जिसके परिणाम स्वरूप अच्छे ग्रन्थ का महत्त्व समाप्त हो गया है ।
७- कल्पदीपिका - पं० जयविजयजी कृत ।
कल्पदीपिकाकार ने ग्रन्थारम्भ में निम्नलिखित श्लोक में कल्पदीपिका बनाने का उद्देश्य प्रकट किया है । -
"प्रणम्य निखिलान् सरीन, स्वगुरु सततोदयम् । कुर्वे स्वबोधविधये, सुगमां कल्पदीविकाम् ॥ २॥
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