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________________ १६७ इस पर वालभी संघ के प्रधान प्राचार्य कालक ने कहा- ''आपका गणना से अस्सीवां वर्ष ठीक हो सकता है, परन्तु हमारे संघ की गणना के अनुसार वर्तमान वर्ष अस्सीवां नहीं बल्कि ६६३ वां आता है और हमारी इस गणना के अनुसार हम बिल्कुल ठीक समझते हैं, इस झमेले का निकाल करने के लिये दोनों संघ के प्रधानों ने निश्चय किया कि कालगणना से सम्बन्धित दोनों संघों की मान्यता मूल सूत्र में स्वीकार करली जाय और उसकी सूचना मूल सूत्र में करली जाय, इस समझौते के अनुसार श्रमण भगवन्त महावीर के चरित्र के अन्त में "समणस्स भगवश्री महावीरस्स जार सव्वदुक्खप्प हीणस्स नपासासयाई विइकताई दसमस्स य वास सयस्स अयं असीइ मे संवच्छरे काले गच्छई। वायणंतरे पण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इति दीसई ॥१४६॥" उक्त सूत्र लिखकर दोनों वाचनाओं का समन्वय किया, तात्पर्य दोनों का एक ही था, माथुरी वाचना की गणना में से एक युगप्रधान का समय छूट गया था, तब वालभी वाचना वालों ने छूटे हुए काल को अपनी गणना में से बाद नहीं किया था, इसी के परिणाम स्वरूप दोनों वाचनाओं की स्थविरावलियों में १३ वर्ष का अन्तर चलता आता था, इस विषय का विशेष खुलासा जानने की इच्छा वालों को हमारा “वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना" नामक निबंध अथवा “पट्टावली पराग-संग्रह' पढ़ना चाहिए। पन्यास संघविजयजी ने सामाचारी में नव प्रकार के श्रमणगाह्य प्रासुक जलों का वर्णन करते हुए, नवम जल को “शुद्ध विकट" लिखकर उसका पर्याय "उष्णोदक" अथवा "वर्णान्तरादि प्राप्त शुद्ध जल" लिखा है, और केवल उष्ण जल को "उष्ण विकट" कहा है। "गणि' शब्द का जो अर्थ संदेह-विषौषधिकार आचार्य जिनप्रभसूरि ने लिखा है वही अर्थ शब्दशः इन्होंने लिखा है, जो अनागमिक है। २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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