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मानकर जो भूल की थी उसकी परम्परा को परवर्ती सभी टीकाकार अपनी अपनी टीकाओं में थोड़े थोड़े फेरफारों के साथ निभाते ही गए, धर्मसागरजी का प्राकृत उद्धरण नीचे लिखे मुजब था।
" तस्स य सावगस्स मित्तो मंडीरवणजत्ताए तारिसा णत्थि अण्णस्स बइल्ला ताहे तेण ते भंडीए जोएत्ता नीता अणापुच्छाए, तत्थ अणेण वि अण्णेण वि समंधावं कारिता ताहे छिन्ना।"
सागरजी का उपर्युक्त उद्धरण किसी प्राकृत महावीर चरित्र से लिया गया है, जो मूलरूप में सूत्रों की चूर्णिका परिवर्तित रूप है, चूणियों में इस पाठ का 'भण्डी-रमण-जत्ता' यह शुद्धरूप है, सागरजी के उद्धरण में “भण्डीर-वण-जत्ता' यह रूप बन गया है, यह विकृत रूप सागरजी ने खुद ने बनाया या चूणि पर से लेने वाले ने बनाया, यह कहना कठिन है, परन्तु इतना निश्चित है कि सागरजी महाराज इस अशुद्धरूप को यथार्थरूप में समझ नहीं पाये थे, इसी पाठ में आने वाले "भंडीए जोएत्ता" इत्यादि शब्दों पर ध्यान दिया होता तो आप इस भूल से बच जाते, परन्तु वैसा नहीं हुआ, मालूम होता है "जत्ता" शब्द के सम्बन्ध से आपने यही अर्थ मान लिया है कि "भण्डीर वन में किसी देव के नाम की यात्रा लगती होगी।
पंडित संघविजयजी ने सागरजी के पाठ में जात्रा शब्द के साथ किसी देव का नाम न देखकर अपनी टीका में भंडीर और यात्रा के बीच में "यक्ष'' शब्द जोड़कर "भंडीर यक्ष यात्रा' बनाकर उक्त कमी को पूरा किया।
"कल्प दीपिका' कार को प्रदीपिकाकार के पाठ में कुछ क्षति ज्ञात हुई जिसका संशोधन करके उन्होंने "भंडीर" के साथ रहे हुए "वन' शब्द को हटाकर "मित्र' शब्द जोड़ा, अर्थात् "भंडीर मित्र यक्ष यात्रा' बनाकर कमी को पूरा किया ।
"कल्प सुबोधिका” कार उपाध्याय श्री विनयविजयजी को दीपिकाकार का संशोधन भी ठीक नहीं ऊँचा और अपनी सुबोधिका में "भण्डीर-वन-यक्ष-यात्रा” इस रूप को कायम किया।
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