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________________ भारत में आए तब कुछ “पासत्थाओं' ने तो यहां सूरिमंत्र के पूजा पट्ट विगैरह छोड़कर साधु का संयम मार्ग पालना शुरू किया, तब कतिपय “पासत्थों' के रूप में रहे, उनके द्वारा इस प्रदेश में सूरिमंत्र का धीरे-धीरे प्रचार हुआ, फिर भी जो त्यागी श्रमण गच्छों के नेता थे उन आचार्यों ने सूरि मन्त्र को कभी नहीं अपनाया । इस परिस्थिति में करोड़ों सूरिमंत्र के जापों से “कोटिक" कहलाने की बात निराधार ही नहीं प्रोपेगेण्डा मात्र है । उपाध्याय धर्मसागरजी ने अपनी इस टीका के बनाने का स्थल समय और श्लोक प्रमाण विगैरह तीन श्लोकों में लिखकर कल्प-किरणावलि की समाप्ति की है, अपना नाम निर्देश नहीं किया । वृत्ति की समाप्ति के बाद चौबीस श्लोकों की एक बड़ी प्रशस्ति दी है, जिसके प्रारम्भ में तपागच्छ के कतिपय आचार्यों का परिचय देने के बाद उपाध्याय धर्मसागरजी की प्रशंसा में कुछ श्लोक रोके हैं, परन्तु प्रशस्ति का अधिक भाग धर्मसागरजी के भक्त श्रावक श्री कुंवरजी के धर्मकृत्यों के वर्णन में रोका है, यह प्रशस्ति धर्मसागरजी के किसी शिष्य की बनाई हुई है। ६-कल्पसूत्र-प्रदीपिकावत्ति-पं. संघविजय कृता यह प्रदीपिका वृत्ति आचार्य श्री विजयसेन सूरिजी के शिष्य पंन्यास संघविजयजी की कृति है, वृत्ति संक्षिप्त होते हुए भी व्याख्यान में पढ़ने योग्य हैं, इसका श्लोक परिमाण ३२५० है, इसका संशोधन उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजी के शिष्य उपाध्याय श्री धनविजयजी द्वारा संवत् १६८१ में हुआ है, इस वृत्ति में सबसे अधिक विशेषता तो यह देखी गई कि लेखक खंडन मंडन के संबन्ध में बहुत ही मध्यस्थ रहे हैं, "कल्पकिरणावलि" "कल्प सुबोधिका" आदि की तरह इस टीकाकार ने लड़ाई के मोर्चे मजबूत नहीं किये, बाकी अन्य टीकाकारों की तरह इन्होंने भी “संदेह विषौषधी' "कल्पकिरणावलि" आदि पूर्ववर्ती वृत्तियों का अनुगमन करके अनेक स्खलनाए की हैं, जैसे उपाध्याय धर्मसागरजी ने अपनी किरणावली में "भण्डी रमण यात्रा" सम्बन्धी प्राकृत भाषा के उद्धरण में केवल “म'' के स्थान पर "व"। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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