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________________ १६१ आचार्य जिनप्रभ की “संदेह विषौषधी पंजिका'' में अनेक प्रकार की स्खलनाए हैं, जिनका अधिकांश टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में अनुसरण करके अनामिकताओं को बढ़ाया है। ___"कोटिक' शब्द की व्याख्या करते हुए उपाध्याय धर्मसागरजी लिखते हैं-"कोटिशः सूरिमन्त्र जापपरिज्ञानादिना कोटिकौ" अर्थात् अनेक करोड़ वार सूरि मन्त्र का जाप और उसके परिज्ञान आदि से “कोटिक' कहलाये, उपाध्याय धर्मसागरजी महाराज ने सूरि मन्त्र को देखकर उसके शब्दों और अक्षरों को गिनकर सोचा होता, तो वे यह कभी नहीं लिखते कि 'कोटिशः सूरि मन्त्र जाप करने से सुस्थित सुप्रतिबुद्ध' ने "कौटिक'' नाम धारण किया था, क्या उन स्थविरों के लिए सूरि मन्त्र जाप के अतिरिक्त अन्य कोई आवश्यक कर्तव्य था ही नहीं, अथवा उनके आयुष्य हजारों वर्षों के थे, जो सूरिमन्त्र के करोड़ों जापकर सकते ? वास्तविक हकीकत तो यह है कि सुस्थित सुप्रतिबुद्ध ये उन दोनों के नाम थे गृहस्थाश्रम में सुस्थित “कोटिवर्ष' (पश्चिम बंगाल) और सुप्रतिबुद्ध “काकन्दी" नगरी (गिद्धोर स्टेट) के निवासी थे, दोनों व्याघ्रापत्यसगोत्र थे और दोनों आर्य सुहस्ती के शिष्य थे, आर्य सुस्थती के कोटिवर्षीय होने से वे "कोटिक' कहलाते थे, और इनसे निकला हुआ गण "कोटिक' नाम से प्रसिद्ध हुआ था, आजकल का प्रचलित सूरि मन्त्र हमारे आचार्य गण श्री गौतम गणधर के समय का परम्परागत मानते हैं, जिसका आधार पिछले समय के स्तुति-स्तोत्रों के अतिरिक्त कोई नहीं है, हमारे आगम साहित्य में सूरि मन्त्र की कोई चर्चा तक नहीं है, आजकल सूरिमन्त्र के नाम से जिस मन्त्र को आचार्य गिनते हैं वह वास्तव में ग्रीक लोगों का मन्त्र है और ग्रीक लोगों के साथ ही भारत में आया है, सर्व प्रथम पार्श्वनाथ की परम्परा के आचार्यों ने जो कि “पासत्था" के नाम से पहिचाने जाते थे और अधिकांश पश्चिम भारत के सिन्ध, पंजाब, गन्धार (कन्दहार) शकिस्तान आदि प्रदेशों में विचरते थे, विक्रम की दूसरी शताब्दी के बाद जब पश्चिम प्रदेशों में रहने वाले जैन गृहस्थ पूर्व की तरफ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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