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अधिक पुरानी थी, मुद्रित “सन्देह विषौषधी' उपलब्ध न होने से हस्तलिखित प्रतिका उपयोग किया है।
(५) कल्प-किरणावली पर्युषणा-कल्प सूत्र की प्रसिद्ध टीकाओं में “संदेह विषौषधी" के वाद "कल्पकिरणावली" का नम्बर है, इसके रचयिता तपागच्छीय उपाध्याय श्री धर्मसागरजी हैं, उपाध्यायजी ने इस टीका का निर्माण विक्रम संवत् १६२८ में किया है, किरणावली का श्लोक प्रमाण ग्रन्थकर्ता ने निम्नोद्ध त श्लोक में निर्दिष्ट किया है
"अनुष्टुभोऽष्ट चत्वारिंशब्छतानि च चतर्दश । षोडशोपरि वर्णाश्च, ग्रन्थमानमिहोदितम् ॥" अर्थात्-'कल्पकिरणावली का ग्रन्थमान ४८०० अडताली सौ और साढे चौदह श्लोक जितना है। इस ग्रन्थ को उपाध्यायजी ने राधनपुर में समाप्त किया है।
वर्धमान कुमार के लेखशाला के प्रसंग पर इन्द्र ने जो शंकाएँ पूछी थीं और उनके वर्धमान कुमार ने जो उत्तर दिये थे उनसे "जैनेन्द्र व्याकरण" उत्पन्न होने का उपाध्यायजी प्रतिपादन करते हैं, परन्तु कल्पान्तर्वाच्यों तथा महानिशीथ आदि प्राचीन ग्रन्थों में "इन्द्र व्याकरण" उत्पन्न होने की बात कही गई है, और वास्तविकता भी यही है, क्योंकि प्राचीन व्याकरणों में "ऐन्द्र व्याकरण" परिगणित है न कि जैनेन्द्र, जैनेन्द्र के नाम से जो व्याकरण प्रसिद्ध है, उसके कर्ता दिगम्बर विद्वानों की मान्यता के अनुसार आचार्य श्री देवनन्दी हैं, परन्तु हमारे मत में श्री देवनन्दी पाणिनीय व्याकरण के न्यासकार होने से वैयाकरणों में परिगणित हो गए हैं, वास्तव में “जैनेन्द्र व्याकरण" के संयोजक दो अन्य दिगम्बर विद्वान् थे, एक आचार्य श्री प्रभाचन्द्र और दूसरे श्री अभयनन्दी, प्रभाचन्द्र ने पाणिनीय व्याकरण के ढंग पर "जैनेन्द्र” नाम से एक विस्तृत व्याकरण का संकलन किया था, पर वह लोकभोग्य नहीं हो सका, आचार्य
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