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अभयनन्दी ने भी उन्हीं सूत्रों में रहो बदल करके प्रभाचन्द्र के सूत्रों में से वैदिक स्वर प्रक्रिया को हटाकर "जैनेन्द्र" के नाम से व्याकरण का निर्माण किया और उस पर एक "महावृत्ति' भी बना डाली है, जो इस समय मुद्रित भी हो चुकी है, हमारे अर्वाचीन विद्वान् इन्द्र और वर्धमान के संवाद से “जैनेन्द्र व्याकरण" उत्पन्न होने की जो बात कहते हैं, उसमें वास्तविकता नहीं है।
उपाध्यायजी ने आचार्य हेमचन्द्र के "योगशास्त्र' के''एवं व्रतस्थितो भत्त्या, सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन् । दयया चातिदीनेषु, महाश्रावक उच्यते ॥"
इस श्लोक की टीका का उद्धरण देकर गृहस्थों को श्रुतज्ञान लिखाने का उपदेश दिया है, परन्तु श्रुत लिखवाने वाले स्थविर नागार्जुन तथा स्कन्दिलाचार्य के नामों से कोई तात्पर्य नहीं निकाला, अगर इन स्थविरों के द्वारा की गयी आगमों की वाचनाओं पर ऊहापोह किया होता और “वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इइ दीसइ ॥१४६॥” इस वाचनान्तर के सूत्र का रहस्य खोजा होता तो १८० और ६६३ के मतभेद का खुलासा मिल जाता, परन्तु यह बात केवल सागरजी के लिए ही नहीं, तमाम टीकाकारों तथा अन्तर्वाच्यकारों के लिए भी समान है, कोई ९८० में पुस्तक लेखन और ६६३ में पुस्तक वाचना का अर्थ निकालते हैं, तो कोई ६९३ में पंचमी से चतुर्थी में पर्युषणा करने का तात्पर्य निकालते हैं, वस्तुतः ये सभी अटकलें हैं, ठोस सत्य किसी में नहीं है, "वाचनान्तर" का स्पष्ट अर्थ तो यही है कि "दूसरी वाचना' परन्तु अधिकांश टीकाकारों को भगवान् महावीर का निर्वाण होने के बाद जैन आगमों की कितनी वाचनाएँ हुई हैं, इसका भी पता नहीं है, अधिकाँश की समझ तो यही है कि “आचार्य नागार्जुन वाचक और श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने वलभी में सम्मिलित होकर जैन आगम लिखवाए,” प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय श्री विनय विजयजी जैसों की यह मान्यता है तब दूसरों का कहना ही क्या ?
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