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शिष्य नहीं किन्तु गच्छ के कतिपय साधुओं की टुकड़ी के नेता को
" गणधर " नाम से उल्लिखित किया है ।
उपाश्रय प्रमार्जन के संबंध में भी जिनप्रभ सूरि ने अपना नया मत प्रदर्शित किया है, वे कहते हैं- "जिस उपाश्रय में साधु ठहरे हुए हों उसको प्रातः १. साधुनों के भिक्षार्थ जाने पर । २. मध्याह्न समय में । ३. और फिर तृतीय प्रहर के अन्त में प्रतिलेखना काल में ४. ऐसे उपाश्रय का चार बार प्रमार्जन करना चाहिए, यह बात वर्षा चातुर्मास्य के लिये है ऋतुबद्ध समय में तीन बार उपाश्रय का प्रमार्जन करना चाहिए ।"
यहां तीन चार बार उपाश्रय प्रमार्जन करने का कहा गया है, वह संसक्त उपाश्रय के लिए है, यदि उपाश्रय संसक्त जीवाकुल हो, तो उसका बार-बार प्रमार्जन करना चाहिए, अन्यथा शेषकाल में दो बार प्रातः प्रति लेखना के अन्त में और शाम को प्रति लेखना की आदि में और वर्षाकाल में ३ बार प्रमार्जन विहित है ।
"संदेह विषौषधी पंजिका" के सम्बन्ध में कुछ बातों पर समालोचना करनी पड़ी है, इसका कारण यही है कि इसके कर्ता संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान् होते हुए भी प्रागमिक ज्ञान में परिपक्क नहीं हुए थे, अन्यथा जिनप्रभ जैसे विद्वान् की कृति में इस प्रकार की स्खलनाएँ नहीं होने पातीं ।
" संदेह - विषौषधी पंजिका" का श्लोक परिमाण लगभग २५०० है, - पंजिका के अन्त में निर्माता ने अपना परिचय सूचक प्रशस्ति आदि कुछ भी नहीं लिखा, यह खटकने वाली बात है, यह पंजिका जिनप्रभ सूरि की प्राथमिक अगर अपने जीवन के मध्यकाल की कृति हो, तो इसका निर्माण काल विक्रम की चौदहवीं शती का मध्यभाग हो सकता है, "बृहट्टिप्पनिका" में जिनप्रभीय "सन्देह विषौषधी" वृत्ति का रचना काल १३६४ वां वर्ष लिखा है, जो ठीक ही प्रतीत होता है जिस प्रति के आधार से हमने "संदेह विषौषधी पंजिका" के संबंध में लिखा है, वह प्रति लगभग ५०० वर्ष से भी
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