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विकट" शब्द से वे "उष्ण जल' बताते हैं, परन्तु यह कथन संदेह विषौषधी से विरुद्ध पड़ता है, जिनप्रभ सूरि ने शुद्ध विकट शब्द से भी उष्ण जल ही माना है और जहाँ जल वाचक शब्द नहीं है, केवल "विकट शब्द' ही है, वहाँ "उद्गमादि विशुद्ध आहार पानी" दोनों ग्रहण किये हैं।
इस विषय में संदेह विषौषधी के निम्नलिखित उदाहरण पढ़ने योग्य हैं, आचार्य जिनप्रभ सूरि लिखते हैं।
"एवमाहारविधिमुक्तवाऽथ पानकविधिमाह-सब्बाई पाणगाई ति पानेषणोक्तानि वक्ष्यमाणानि चोत्स्वेदिमादीनि तत्रोत्स्वे दिमं पिष्टजलं, पृष्टभृत्हस्तादिक्षालनजलं, संस्वेदिमं संसेकिमं 'वा' यत् पर्णाद्य त्काल्य शीतोदकेन सिच्यते, तथा चाउलोदगं-तन्दुल धावनोदकं, तिलोदकंमहाराष्ट्रादिषु निस्तुषतिल धावनजलं, तुषोदकं-बीमादि धावनं, यवोदकं-यवधावनं, आयामकोऽवस्त्रावणं सौवीरक-कांजिकं, "शुद्धविकटमुष्णोदकं उसिणवियडेत्ति-उष्णजलं तदप्यसिक्थं" यतः प्रायेणाष्टमोर्ध्वतपस्विनो देहं देवताधितिष्ठति।"
आचार्य जिनप्रभ ने “गणि' शब्द का बड़ा अनोखा अर्थ किया है, वे कहते हैं-जिसके पास आचार्य सूत्रादिका अभ्यास करते हों, वह “गणी" अथवा "सूत्रादि के लिए जो आचार्य दूसरों के पास उपसम्पदा के लिये हुए हों वे "गणि' कहलाते हैं।'
आचार्य जिनप्रभ के उपर्युक्त “गणि" शब्द के दोनों अर्थ अनागमिक हैं, आचार्य को सूत्रादि पढाने वाला “गणी" नहीं कहलाता किन्तु आचार्य की गैर हाजरी में आचार्य का और उपाध्याय की गैरहाजरी में उपाध्याय का कर्तव्य बजाने वाला गीतार्थ साधु "गणी" कहलाता है, ऐसा निशीथ चूणि आदि में लिखा है, सूत्रादि के निमित्त आचार्य किसी की उपसम्पदा नहीं लेते किन्तु सामान्य साधु इस प्रकार की उपसम्पदा लेते हैं।
"गणधर" इस शब्द की व्याख्या में भी आचार्य जिनप्रभ ने बडा गोलमाल किया है, यहां पर "गणधर' शब्द का अर्थ तीर्थंकर
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