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________________ १५५ “तित्थोगाली पइन्नय" हमने अच्छी तरह पढ़ा है, उसमें इन गाथाओं का नाम निशान तक नहीं है, वास्तव में पूर्णमियक, आञ्चलिक, आदि नूतन गच्छ प्रवर्तकों ने इस प्रकार की अनेक नवीन गाथाएँ बनाकर " तित्थोगाली" "महानिशीथ" आदि ग्रन्थों में प्रक्षिप्त कर दी हैं, उसी प्रकार की प्रक्षिप्त गाथाओं से दूषित कोई " तित्थोगाली" का पुस्तक श्री जिनप्रभसूरिजी को हाथ लगा है और आपने इन गाथाओं को प्रामाणिक मान लिया है, जो ठीक नहीं है । "सुट्ठिय-सुप्पड़िबद्धाणं" इन नामों के विशेषणात्मक "कोडिय काकंदगाणं" इन शब्दों की व्याख्या करते हुए आप लिखते हैं "कौटिक काकंद काविति नाम" अर्थात् आपके मत से "कौटिक - काकन्दक" ये नाम हैं, परन्तु वास्तव में ये दोनों सुस्थित- सुप्रतिबुद्ध के क्रमशः विशेषण हैं, सुस्थित कोटि वर्ष के रहनेवाले होने से “कौटिक” कहलाते थे, "कोटि" शब्द का प्रवृत्ति निमित्त बताते हुए आप लिखते हैं- "कोट्यंश सूरिमन्त्र जाप - परिज्ञानादिना कोटिको " अर्थात् — कोट्यंश सूरि मन्त्र के जापपरिज्ञानादि से "कोटिक " कहलाते थे, “कोटि शब्द" के साथ जोड़े हुए "अंश" शब्द से आपका क्या तात्पर्य है, सो तो आप ही जानें, आपके इस " कोट्यंश" शब्द प्रयोग से परवर्ती मुनिसुन्दरसूरि, कल्पप्रदीपिकाकार संघ विजयजी और कल्पदीपिकाकार जयविजयजी आदि विद्वानों ने भी "कोट्यंश सूरिमंत्र" का प्रयोग किया है जो हमारे विचार से सार्थक प्रतीत नहीं होता । इसी प्रकार आपने श्रमणों की शाखाओं की तथा श्रमणों के गण की व्याख्या करने में केवल कल्पना का आश्रय लिया है, शास्त्राधार का नहीं । खरतरगच्छीय विद्वानों ने श्रमण योग्य प्रासुक जल की व्याख्या करते हुए "शुद्ध विकट" और "उष्ण विकट" शब्दों का भिन्न भिन्न अर्थ किया है परन्तु जिनप्रभ सूरिजी ने "शुद्ध विकट" शब्द का अर्थ "काथकसलेकादि से अचित्त बनाया हुआ जल" और उष्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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